________________
५
१६६.
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
सारस्वत गणपाठ के लिये उसका आश्रयण करना उचित प्रतीत नहीं होता । 'संस्कृत व्याकरण में गणपाठ की परम्परा और प्राचार्य पाणिनि' के लेखक प्रा० कपिलदेव साहित्याचार्य ने अपने ग्रन्थ में सारस्वत गणपाठ के सम्बन्ध में ( हमने भी ऊपर) जो लिखा है, वह सिद्धांत - चन्द्रिका नामक रूपान्तर के आधार पर लिखा गया है ।
१८. बोपदेव (सं० १३०० - १३५० वि० )
वोपदेव ने मुग्धबोध व्याकरण से संबद्ध गणपाठ का प्रवचन भी किया था । इसमें अनेक पाणिनीय गण अपरिवर्तित रूप से मिलते हैं । कुछ गणों के नामों में परिवर्तन किया है । कल्याण्यादि, शरत्प्रभृति १० तथा द्वारादि जैसे कतिपय गणों के शब्दों का सूत्रों में ही पाठ किया है। मुग्धबोधकार द्वारा इदं प्रथमतया निर्धारित एक तन्वादि गण ही ऐसा है, जिसे इसका मौलिक गण कहा जा सकता है |
१५
मुग्धबोध के टीकाकार दुर्गादास और रामतर्क वागीश ने अपनी व्याख्याओं में पाणिनि के प्रायः सभी गणों का विस्तार से निर्देश किया है । मुग्धबोध के सर्वादि गण में पूर्वादि शब्दों का निर्देश द्वि शब्द के पीछे उपलब्ध होता है । यही क्रम सम्भवत: पिशलि के गणपाठ में भी था ।
१९. पद्मनाभदत्त (सं० १४०० वि० )
२०
डा० बेल्वेल्कर का मत है कि सौपद्म सम्प्रदाय के गणपाठ का निर्धारण काशीश्वर नाम के विद्वान् ने किया था, और रमाकान्त नाम के व्याकरण ने इस गणपाठ पर एक वृत्ति लिखी थी ।' गणेश्वर के पुत्र पद्मनाभदत्त ने पृषोदरादि-वृत्ति नामक एक विशिष्ट ग्रन्थ की रचना सं० १४३० वि० (सन् १३७५ ई०) में की थी ।"
अज्ञात व्याकरण संबद्ध गण - प्रवक्ता और व्याख्याता
वैयाकरण वाङमय में गणपाठ से सम्बन्ध रखने वाले कतिपय १. सिस्टम्स प्राफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ठ १११ ।
२५