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गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता
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चार्य) ने अपने सूत्रों में अनेक गणों का निर्देश किया है । इस गणपाठ में भी प्राचीन गणपाठों के समान कुछ वैचित्र्य उपलब्ध होता है । यथा
१ - पाणिनीय स्वरादि और चादि गणों का एक में समावेश ।
२– कात्यायन द्वारा उपसंख्यात श्रत् और अन्तर् शब्द का प्रादिगण में समावेश, तथा संभस्त्रा जिनशणपिण्डेभ्यः फलात् श्रादि वार्तिक के उदाहरणों का प्रजादि में समावेश द्रष्टव्य है ।
३ - पाणिनीय गणनामों का कहीं कहीं परिवर्तन भी देखा जाता हैं । यथा
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गौरादि गण का नदादि, बाह्वादि का पद्धत्यादि, सपत्न्यादि का पत्न्यादि, शुभ्रादि का प्रत्र्यादि आदि नामकरण उपलब्ध होते हैं ।
४ - कहीं-कहीं पाणिनि के विस्तृत सूत्र में निर्दिष्ट शब्दों के लिये नये गणों का निर्धारण भी देखा जाता है । यथा
इन्द्रवरुणभवशवं की दृष्टि से इन्द्रादि, जानपदकुण्डगोण की दृष्टि से जानपदादि गण । (ये अन्य व्याकरणों में भी मिलते हैं) ।
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पाणिनि के पूतक्रतोरे च वृषाकप्यग्नि तथा मनोरौ वा सूत्रों की दृष्टि से मन्वादिप्राकृतिगण तथा पितृष्वसुश्छन् और मातृष्वसुश्च सूत्रों की दृष्टि से पितृष्वस्त्रादि गण की कल्पना सारस्वतकार की अपनी उपज्ञा है ।
५ – कहीं-कहीं पूर्वाचार्यों द्वारा निर्धारित गणों की उपेक्षा भी की है । यथा-
श्राचार्य चन्द्रगोमी ने पाणिनि के ऊषशुषिमुष्कमधो रः तथा इसी सूत्र पर रचे गये कात्यायन के रप्रकरणे खमुखकुजेभ्यः उपसंख्यानम् वार्तिक के लिए ऊषादि गण की कल्पना की थी, परन्तु सारस्वतकार ने यहां इस लाघव को स्वीकार न करके पाणिनि के सूत्र तथा कात्यायन के वार्तिक का सम्मिश्रण करके ऊषशुषिमुष्कमधुखमुख कुञ्जनगपांशुपाण्डुभ्यः जैसे बड़े सूत्र की रचना की है । सारस्वत - गणपाठ इसकी चन्द्रिका टीका में उपलब्ध होता है ।
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वस्तुत: 'सिद्धान्त चन्द्रिका' सारस्वत का रूपान्तर है' । इसलिए १. द्र० सं० व्या० शा ० इतिहास भाग १, सारस्वत व्याकरण- प्रकरण |