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________________ १८८ संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र का इतिहास देवाभिप्रायेण द्रष्टव्यम् । अन्यवैयाकरणमतेन सूत्राण्येतानि । गणरत्नमहोदधि, पृष्ठ ८६। जपादि-भोज के जपादि गण का तथा तन्निर्देशक जपादीनां पो वः सूत्र का अनुकरण प्राचार्य हेमचन्द्र ने २।३।१०५ में किया है। क्षीरस्वामी ने भी अपने अमरकोशोद्धाटन में भोजोय जपादि गण का असकृत् निर्देश किया है। यथा कं शिरः पाटयति प्रविशतां कवाटो द्वारपट्टः, जपादित्वाद् वत्वम् । २।२।१७॥ 'पा(प) रापतपस्यायं पारावतः, जपादित्वाद् वत्वम् ।२।५॥१५॥ १० इसी प्रकार अनेकत्र जपादि का निर्देश अमरकोशोद्धाटन में उपलब्ध होता है। ४-गणों के नामान्तर-भोज ने प्राचार्य चन्द्र के अनुकरण पर पाणिनीय अपूपादि का यूपादि ( ४।४ । १८८) तथा बह्वादि का शोणादि (३।४।७५) नाम से निर्देश किया है। १३ ५-क्वचित चान्द्र अनुकरण का प्रभाव-यद्यपि भोज ने प्राचार्य चन्द्र का अत्यधिक अनुकरण किया है, पुनरपि कहीं-कहीं उसने चन्द्र का अनुकरण न करके स्वतन्त्र मार्ग भी अपनाया है। यथा__ पाणिनि के व्रीह्यादि गण का प्राचार्य चन्द्र ने कात्यायन के अनुकरण पर त्रिधा विभाग किया है-व्रीह्यादि, शिखादि और यव२० खदादि। परन्तु भोज ने वीद्यादि गण में पठित शिखा आदि शब्दों को पुष्करादि गण (५।२।१९०-१९२) और कर्म तथा चर्म शब्द को बलादि गण (५।२।१६३-१९४) में पढ़ कर अपनी स्वतन्त्र मनीषा का परिचय दिया है। ६-पाठान्तरों का निर्देश- भोज ने प्राचीन विभिन्न प्राचार्यों २५ द्वारा स्वीकृत एक शब्द के विभिन्न पाठान्तरों को भी कहीं-कहीं स्वतन्त्र शब्दों के रूप में स्वीकार किया है । यथा कुर्वादि-गण में काशिका का पाठ मुर है । चन्द्र ने इसके स्थान में पुर पाठ स्वीकार किया है। भोज ने इस गण में (४।४।१४४१५३) दोनों शब्दों का पाठ किया है ।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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