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गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता
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१२. महाराज भोजदेव (सं० १०७५-१११० वि०)
पूर्वाचार्यों द्वारा गणपाठ को शब्दानुशासन से पृथक् खिलपाठ के रूप में पढ़ने से इसके पठन-पाठन में जो उपेक्षा हुई, और उसका जो भयङ्कर परिणाम हुआ, उसका निर्देश हम पूर्व (भाग २ पृष्ठ ४) कर चुके हैं। महाराज भोजदेव ने पूर्व वैयाकरणों द्वारा की गई ५ उपेक्षा और उसके दुष्परिणामों को देखकर उसे पुनः शब्दानुशासन (सूत्रपाठ) में पढ़ने का साहस किया (द्र० पूर्व पृष्ठ ५)।
मोजीय गणपाठ का वैशिष्ट्य ' भोज के गणपाठ का प्रधान वैशिष्टय उसका सूत्रपाठ में समाविष्ट होना है । इसके साथ ही इसमें निम्न वंशिष्ट्य भी उपलब्ध १० होते हैं
१-प्राकृति-गणों का पाठ-पाणिनि आदि प्राचीन प्राचार्यों द्वारा प्राकृतिगण रूप से निर्दिष्ट गणों को भोज ने उन-उन गणों में समाविष्ट होनेवाले शब्दों का यथा-सम्भव पाठ करके अन्तिम शब्द के साथ प्रादि पद का निर्देश किया है। . २-वातिकगणों का पाठ-आचार्य चन्द्र ने जिस प्रकार कात्यायनीय वार्तिकों में निर्दिष्ट गणों को अपने सूत्रपाठ में स्थान दिया, उसी प्रकार प्राचार्य भोज ने भी उन्हें सूत्रपाठ में पढ़ा है ।
३-नवीन गणों का निर्देश-भोज ने पूर्व वैयाकरणों द्वारा अपठित कतिपय नवीन गणों का भी पाठ किया है । यथा: किंशुकादि (३।२।९८) वृन्दारकादि (३।२।८६) · मतल्लिकादि (३।२१८८) खसूच्यादि (३।२।८३)
जपादि (७।३।६२) - इनमें से प्रथम चार गणों का निर्देश करते हुए वर्धमान ने स्पष्ट शब्दों में इन्हें भोज द्वारा अभिप्रेत लिखा है । यथा
२५ किंशुकादि-अयं च गणः श्रीभोजदेवाभिप्रायेण । गणरत्नमहो दधि, पृष्ठ ८६।
वृन्दारकादि-मतल्लिकादि-खसूच्यादि एतच्य गणत्रयं भोज