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१८६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
(ग) पाणिनि के ब्राह्मणादि ( ५।१।१२४ ) और पुरोहितादि (५।१।१२८) दोनों गणों का पाल्यकीति ने ब्राह्मणादि (३।३.१०) में अन्तर्भाव कर दिया है।
इसी प्रकार अन्यत्र भी यह एकीकरण देखा जाता है ।
गणों के एकीकरण से हानि-पाल्यकीति आदि ने पाणिनि के विभिन्न गणों का लाघव की दृष्टि से जहां-जहां एकीकरण किया है, वहां सर्वत्र एक महान् दोष उपस्थित हो जाता है। पाणिनि आदि पुराने प्राचार्यों ने शब्दों के स्वर-भेद के परिज्ञापन के लिए जो महान् प्रयत्न किया था, वह उत्तरवर्ती प्राचार्यों के लाघव के नाम पर किए गए ऐसे प्रयत्नों से सदा के लिए विलुप्त हो गया।
६-गणसूत्रों का गणपाठ से पृथक्करण-पाणिनि आदि ने गणपाठ में जो अनेक गणसूत्र पढ़े थे, उन्हें पाल्यकीर्ति ने गणपाठ से निकालकर शब्दानुशासन में स्वतन्त्र सूत्र रूप में पढ़ा है । यथा
(क) पाणिनि के स्थलादि गण (५।४।३) में पठित कृष्ण तिलेषु, १५ यव व्रीहिषु आदि गणसूत्रों को पाल्यकीत्ति ने कृष्णयवजीर्ण (३।३। १८१) आदि स्वतन्त्र सूत्र का रूप दे दिया हैं।
(ख) पाणिनि के प्रज्ञादि गण (५४३८) में पठित कृष्ण मृगे, श्रोत्र शारीरे गणसूत्रों को पाल्यकीर्ति ने पाणिनि के प्रोषधेरजातो
(५।३।३७) सूत्र के साथ मिलाकर कृष्णौषधिश्रोत्रान्मृगभेषजशरीरे २० (३।४।१३३) के रूप में पढ़ा है।
७-चान्द्र नामों का परिवर्तन–पाल्यकीति ने गणनामों में चान्द्र शब्दानुशासन का अनुकरण करते हुए भी कई स्थानों पर चान्द्र नामों का परित्याग करके नए गणनाम दिए हैं । यथा
क-चन्द्राचार्य के हिमादिभ्यः ( ४।२।१३६ ) सूत्र में निर्दिष्ट २५ हिमादि गण का नाम पाल्यकीर्ति ने गुणादि (३।३।१५८) रखा है।
ख-चन्द्राचार्य द्वारा निर्धारित कलाप्यादि गण ( ५।३।१४० ) का नाम पाल्यकीर्ति ने मौदादि (३।१।७०) रखा है।
पाल्यकीति प्रोक्त गणपाठ उस की स्वोपज्ञ अमोघा वृत्ति में पढ़ा है। यह यक्ष्मवर्म विरचित चिन्तामणि अपरनाम लघ-वत्ति के अन्त में ३० भी छपा हुआ मिलता है।