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२/२४ गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता १८५
(ख) द्वितीयाश्रितातीत ( २१ । २४ ) इत्यादि के स्थान में श्रितादिगण (२।३।३३)।
समानस्य छन्दस्य० (६।३।८४) के योगविभाग से सिद्ध होनेवाले सपक्ष सधर्म तथा ज्योतिर्जनपद (६।३।८५) आदि के लिए धर्मादि गण (२।२।११६) ।
पाल्यकीति ने कई स्थानों पर सर्वथा ऐसे नए गणों का भी प्रयोग किया है, जो पाणिनीय शास्त्र में गण रूप से निर्दिष्ट नहीं हैं।
यथा
(क) पाणिनि के तेन प्रोक्तम् (४।३।१०१) सूत्र से यथाविहित प्रत्यय होकर सिद्ध होनेवाले मौदाः पैप्पलादाः आदि प्रयोगों के लिए १० पाल्यकीति ने मोदादिभ्यः (३।१।१७०) सूत्र में मोदादि गण का निर्देश किया है।
(ख) पाणिनि के समासाच्च तद्विषयात् (५।३।१०६) सूत्र से सिद्ध होनेवाले काकतालीय अजाकृपाणीय प्रयोगों के लिए काकतालीयादयः (३।३।४२) सूत्र में काकतालीयादि गण का पाठ किया है। १५
४-सन्देहनिवारण-पाणिनि ने तन्त्र में जहां एक नामवाले दो गण थे, उनमें सन्देह की निवृति के लिए विभिन्न नामों का उपयोग किया है । यथा
पाणिनि ने ४।२।८० में दो कुमुदादि गण पढ़े हैं। पाल्यकोति ने पहले कुमुदादि को कुमुदादि ही रखा, और द्वितीय कुमुदादि को २० अश्वत्थादि नाम से स्मरण किया है (द्रष्टव्य-सूत्र २।४।१०२)।
५--गणों का एकीकरण--पाल्यकीति ने पाणिनि के अनेक गणों को परस्पर मिलाकर लाघव करने का प्रयास किया है। यथा-- . (क) पाणिनि के भिक्षादि (४।२।३८) और खण्डिकादि (४।२। ४५) को पाल्यकीति ने मिलाकर एक भिक्षादि गण (२।४।१२८) २१ ही स्वीकार किया है।
(ख) पाणिनि के कथादि (४।४।१०२) और गुडादि (४।४। १०३) दो गणों को भी पाल्यकीर्ति ने कथादि (३।२।२०२) के रूप में एक बना दिया है।