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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
नुशासन का प्रवचन किया था । पाल्यकीति के समय और उसके शब्दानुशासन के विषय में हम इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में विस्तार से लिख चुके हैं।
शाकटायन नाम का कारण -आचार्य पाल्यकीर्ति के लिए ५ शाकटायन शकटाङ्गज शकटपुत्र आदि शब्दों का भी विभिन्न ग्रन्थों में
प्रयोग देखा जाता है। इसके कारण की विवेचना भी प्रथम भाग में 'वंश तथा शाकटायन नाम का हेतु' सन्दर्भ में कर चके हैं।
गणपाठ=पाल्यकीर्ति ने स्व-तन्त्र संबद्ध गणपाठ का भी प्रवचन किया था। उसका सन्निवेश अमोघावृत्ति में मिलता है। यह स्वतन्त्र १० रूप से भी लघवत्ति के अन्त में छपा है । इस गणपाठ में पुराने गणपाठों से अनेक भिन्नताएं उपलब्ध होती हैं। यथा
१-नामकरण की लघुता–पाल्यकीर्ति ने अनेक गणों के पुराने बड़े नामों के स्थान में लघु नामों का निर्देश किया है । यथा
(क) प्राहिताग्न्यादि के स्थान में भार्योढादि (२।१।११५)। (ख) लोहितादि , , निद्रादि (४।१।२७) । (ग) अश्वपत्यादि , , , धनादि (२।४।१७४)। (घ) सन्धिवेलादि , , , सन्ध्यादि (३।१।१७६) । (ङ) ऋगयनादि , , , शिक्षावि (३।१।१३६)। इत्यादि
आचार्य हेमचन्द्र ने गणनिर्देश में शाकटायन का अनुसरण किया २० है । केवल पाणिनीय पक्षादि के स्थान पर पाल्यकीति द्वारा निर्दिष्ट
पथ्यादि (२।४।२०) के स्थान पर पन्थ्यादि (६।२।८६) का परिवर्तन उपलब्ध होता है।
२-गणों का न्यूनीकरण-जिन पाणिनीय गणों में दो चार ही शब्द थे, उन्हें पाल्यकीति ने सूत्र में पढ़कर गणपाठ से हटा दिया।
३-नये गणों का निर्माण-पाणिनि ने जिन सूत्रों में अनेक पद हैं, उन्हें सूत्र से हटाकर नये गणों के रूप में परिवर्तित कर दिया। यथा
(क) देवमनुष्यपुरुषपुरुमर्येभ्यः (५।४।५६) के स्थान में देवादिगण (३।४।६३)।
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