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गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता १८३ १०-वामन (सं० ३५०-६०० वि० पूर्व) धामनकृत विश्रान्तविद्याधर व्याकरण का वर्णन इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में कर चुके हैं । वामन ने स्वशब्दानुशासन से संबद्ध गणपाठ का भी प्रवचन किया था। वामनप्रोक्त गणपाठ का निर्देश वर्धमान ने गणरत्नमहोदधि में बहुत्र किया है।
वामन के गणपाठ में अनेक भिन्नताएं हैं। कुछ एक इस प्रकार
१-नये गणों का संग्रह-वामन ने अपने गणपाठ में कई नये गणों का संग्रह किया है । यथा-केदारादि । वर्धमान लिखता है'केदारादौ राजराजन्यवत्सा उष्ट्रोरभ्रौ वृद्धयुक्तो मनुष्यः। १० उक्षा ज्ञेयो राजपुत्रस्तथेह केदारादौ वामनाचार्यदृष्टे ॥'
गणरत्नमहादधि श्लोक २५८ । इस श्लोक के चतुर्थ चरण में स्पष्ट कहा है कि केदारोदि गण वामन-दृष्ट है।
२-पाठभेद से गणों के नामकरण को भिन्नता-वामन के कई १५ एक गण ऐसे हैं जो पूर्वाचार्यों के समान होते हुए भी प्रथम शब्द के पाठभेद के कारण नामभेद होने से भिन्नगणवत् प्रतीत होते हैं । यथा
पाणिनि के शण्डिकादि (पा० ४।३।३२) का वामन के मत में शुण्डिकादि नाम है । वर्षमान लिखता है___ 'शुण्डिका ग्रामोऽभिजनोऽस्य शौण्डिक्यः । अयं वामनमताभिप्रायः पाणिन्यादयस्तु शण्डिकस्य ग्रामजनपदवाचिन: शाण्डिक्य इत्युदाहरन्ति । गणरत्नमहोदधि, पृष्ठ २०४ ।
वामन के गणपाठ के विषय में हम उतना ही जानते हैं, जितना वर्धमानः के गणरत्नमहोदधि में उद्धृत उद्धरणों से जाना जा २५ सकता है।
११-पाल्यकीर्ति (वि० सं० ८७१-९२४) प्राचार्य पाल्यकीति ने सम्प्रति शाकटायन नाम से प्रसिद्ध शब्दा