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________________ १८२ संस्कृत व्याकरण-सास्त्र का इतिहास १-अनेक स्थानों पर पूर्व प्राचार्यप्रोक्त गणसूत्रों को गणपाठ में स्थान न देकर स्वतन्त्र सूत्र रूप में प्रतिष्ठित करना। २–कतिपय विभिन्न गणों का एकीकरण। यथा-पिच्छादि और तुन्दादि का । द्र०-महावृत्ति ४।११४३॥ ३-प्राकृतिगण में प्रयोगानुसार कतिपय शब्दों की वृद्धि। ४-काशिका तथा चान्द्रवृत्ति दोनों के भिन्न-भिन्न पाठों का संग्रह । यथा-कुर्वादिगण में काशिका का पाठ प्रभ्र है, चान्द्रवत्ति का शुभ्र । जैनेन्द्र में दोनों का पाठ उपलब्ध होता है। द्र०-- महावृत्ति ३।१।१३८॥ ५-प्रायः सर्वत्र तालव्य श को दन्त्य स के रूप में पढ़ा है । यथा।। शंकुलाद को संकुलाद. (द्र०–महावृत्ति ३।२।६३), सर्वकेश को सर्वकेस (द्र०-महावृत्ति ३।३।६६)। इन विभिन्नताओं के अतिरिक्त इस गणपाठ में कोई मौलिक वैशिष्टय नहीं है। गणपाठ की किसी व्याख्या का भी हमें कोई ज्ञान १५ नहीं है। गुणनन्दी गुणनन्दी ने जैनेद्र व्याकरण का परिष्कार किया था। इस का स्वतन्त्र नाम शब्दार्णव है । इसका वर्णन प्रथम भाग में जैनेन्द्र व्याकरण के प्रसङ्ग में कर चुके हैं । गुणनन्दी ने आचार्य पूज्यपाद के गणपाठ २० को उसी रूप में स्वीकार किया था, अथवा उसमें भी कुछ परिष्कार किया था, यह शब्दार्णव व्याकरण संबद्ध गणपाठ के अनुपलब्ध होने से अज्ञात है। हमारा अनुमान है कि जैसे गुणनन्दी ने जैनेन्द्र धातुपाठ का कुछ-कुछ परिष्कार किया, उसी प्रकार गणपाठ का भी परिष्कार अवश्य किया होगा। र उदधृत किए हैं । यथा-'गोभिलचक्रवाकाशोकच्छगल कूशीरकयमलमख मन्मथशब्दान् अभयनन्दी गणेऽस्मिन् ददर्श ।' गणरत्नमहोदधि, पृष्ठ १७२ । इस प्रकार के पाठों से यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि जैनेन्द्र गणपाठ का अभयनन्दी ने प्रवचन किया था। अभयनन्दी तो काशिकाकारवत् अपनी वृत्ति में गणपाठ का संग्रह करने वाला है।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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