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________________ गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता १८१ संसार के कल्याण के इच्छुक सत्यनिष्ठ विद्वानों को स्वामी दयानन्द सरस्वती के उक्त मत के ग्रहण और अयुक्त मत को छोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए । इत्यलं प्रसक्तानुप्रसक्तेन । ८. क्षपणक (वि० प्रथमशती) क्षपणक व्याकरण के विषय में हम इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में ५ लिख चुके हैं।. . क्षपणक के उणादिसूत्र के इति पद से संबद्ध एक उद्धरण उज्ज्वलदत्त ने अपनी उणादिसूत्रवृत्ति में उद्धृत किया है' 'क्षपणकवृत्तौ अत्र 'इति' शब्द प्राद्यर्थे व्याख्यातः' । पृष्ठ ६० । इस उद्धरण से न केवल क्षपणक प्रोक्त उणादिसूत्रों की सत्ता का .१० ही ज्ञान होता है, अपितु उसकी स्वोपज्ञ उणादिवृत्ति का भी परिचय मिलता है । क्षपणक-प्रोक्त धातुपाठ के विषय में हम धातुपाठ के प्रकरण में (भाग २, पृष्ठ १२६) लिख चुके हैं। अतः जिस वैयाकरण ने अपने शब्दानुशासन, उसके धातुपाठ और उणादि-सूत्र तथा उसकी वत्ति का प्रवचन किया हो, उसने अपने शब्दानुशासन १५ से सम्बद्ध गणपाठ का प्रवचन न किया हो, यह कथमपि बुद्धिग्राह्य नहीं हो सकता। अतः क्षपणकप्रोक्त गणपाठ के विषय में साक्षात् निर्देश उपलब्ध न होने पर भी उसकी सत्ता अवश्य स्वीकार करनी पड़ती है। २० है-देवनन्दी (सं० ५०० वि० से पूर्व) - आचार्य देवनन्दी अपर नाम पूज्यपाद के शब्दानुशासन का वर्णन इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में विस्तार से कर चुके हैं। पूज्यपाद ने स्वतन्त्र-संबद्ध गणपाठ का भी प्रवचन किया था। यह गणपाठ अभयनन्दी-विरचित महावृत्ति में संप्रविष्ट उपलब्ध होता है। जैनेन्द्र गणपाठ में निम्न विभिन्नताएं हैं १. जैनेन्द्र गणपाठ के अनेक पाठ वर्धमान ने अभयनन्दी के नाम से
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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