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गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता
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संसार के कल्याण के इच्छुक सत्यनिष्ठ विद्वानों को स्वामी दयानन्द सरस्वती के उक्त मत के ग्रहण और अयुक्त मत को छोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए । इत्यलं प्रसक्तानुप्रसक्तेन ।
८. क्षपणक (वि० प्रथमशती) क्षपणक व्याकरण के विषय में हम इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में ५ लिख चुके हैं।. .
क्षपणक के उणादिसूत्र के इति पद से संबद्ध एक उद्धरण उज्ज्वलदत्त ने अपनी उणादिसूत्रवृत्ति में उद्धृत किया है' 'क्षपणकवृत्तौ अत्र 'इति' शब्द प्राद्यर्थे व्याख्यातः' । पृष्ठ ६० ।
इस उद्धरण से न केवल क्षपणक प्रोक्त उणादिसूत्रों की सत्ता का .१० ही ज्ञान होता है, अपितु उसकी स्वोपज्ञ उणादिवृत्ति का भी परिचय मिलता है । क्षपणक-प्रोक्त धातुपाठ के विषय में हम धातुपाठ के प्रकरण में (भाग २, पृष्ठ १२६) लिख चुके हैं। अतः जिस वैयाकरण ने अपने शब्दानुशासन, उसके धातुपाठ और उणादि-सूत्र तथा उसकी वत्ति का प्रवचन किया हो, उसने अपने शब्दानुशासन १५ से सम्बद्ध गणपाठ का प्रवचन न किया हो, यह कथमपि बुद्धिग्राह्य नहीं हो सकता। अतः क्षपणकप्रोक्त गणपाठ के विषय में साक्षात् निर्देश उपलब्ध न होने पर भी उसकी सत्ता अवश्य स्वीकार करनी पड़ती है।
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है-देवनन्दी (सं० ५०० वि० से पूर्व) - आचार्य देवनन्दी अपर नाम पूज्यपाद के शब्दानुशासन का वर्णन इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में विस्तार से कर चुके हैं। पूज्यपाद ने स्वतन्त्र-संबद्ध गणपाठ का भी प्रवचन किया था। यह गणपाठ अभयनन्दी-विरचित महावृत्ति में संप्रविष्ट उपलब्ध होता है। जैनेन्द्र गणपाठ में निम्न विभिन्नताएं हैं
१. जैनेन्द्र गणपाठ के अनेक पाठ वर्धमान ने अभयनन्दी के नाम से