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________________ गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता १७९ आचार्य चन्द्रगोमी से उत्तरवर्ती अनेक आचार्यों ने चन्द्र के सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ आदि का अनुकरण किया, परन्तु उन्होंने उसके नाम का निर्देश भी नहीं किया। कहां प्राचार्य पाणिनि का अपने से पूर्ववर्ती अनेक प्राचार्यों का सम्मानार्थ नामस्मरण करना और कहां अर्वाचीन आचोर्यों का अहंकारवश किसी पूर्ववर्ती आचार्य के नाम का निर्देश न करना । यह है आर्ष और अनार्ष ग्रन्थों के स्वरूप की भिन्नता। भला ऐसे अहंकारी कृतघ्न ग्रन्थकारों के ग्रन्थों के अध्ययन से कभी किसी शास्त्र के तत्त्व का बोध हो सकता है ? क्या ऐसे ग्रन्थ के पढ़नेवाले सुकुमार-मति छात्रों की बुद्धि पर इस कृतघ्नता का कुप्रभाव न होगा? ___ स्वामी दयानन्द सरस्वती की चेतावनी--उस युग में जब कि चारों ओर अनार्ष ग्रन्थों के पठन-पाठन का ही बोलबाला था, सबसे पूर्व महामनस्वी स्वामी विरजानन्द सरस्वती की विमल मेधा में अनार्ष ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन से होने वाली हानियों को उपज्ञा हुई। उनसे आर्ष-ज्योति पाकर इस युग के प्रवर्तक, कान्तदर्शी अशेषशेमुषीसम्पन्न स्वामी दयानन्द ने स्पष्ट घोषणा की 'जितना बोध इन (अष्टाध्यायी-महाभाष्य) के पढ़ने से तीन वर्षों में होता है', उतना बोध कुग्रन्थ अर्थात् सारस्वत चन्द्रिका, कौमुदी, १. स्वामी दयानन्द सरस्वती के उक्त मत की बहुधा परीक्षा कर ली गई है। प्राचार्यवर श्री पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु तथा श्री पं० शंकरदेव जी तथा .. उनकी शिष्य-परम्परा में सम्पूर्ण महाभाष्य पर्यन्त व्याकरणशास्त्र का अध्यापन प्रायः ५ वर्ष में समाप्त हो जाता है। और छात्र कौमुदी शेखर प्रभृति ग्रन्थों के माध्यम से १२ वर्ष पर्यन्त अध्ययन करने वाले व्याकरणाचार्यों की अपेक्षा कहीं अधिक विद्वान हो जाते हैं। दो-एक अति कुशाग्रमति परिश्रमी छात्रों ने तो तीन वर्ष में ही महाभाष्यान्त व्याकरण का अध्ययन समाप्त कर लिया। प्रष्टाध्यायी के क्रम से पठन-पाठन का प्रयोग तो आर्यसमाज के क्षेत्र में अनेक स्थानों पर हो रहा है, परन्तु इस क्रम से वास्तविक रीति से पठन-पाठन (जिससे छात्र वस्तुतः अल्प काल में ही अच्छे वैयाकरण बन सकें) केवल श्री पं. ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु, श्री पं० शंकरदेवजी तथा उनकी शिष्यपरम्परा तक ही सीमित है।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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