________________
१७५ .
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
यपादि।
है क्योंकि उसने स्वर-भेद की रक्षा करते हुए और स्वर-प्रकरण का निर्देश करते हुए भी यहां पर स्वर-भेद की उपेक्षा क्यों की? हो सकता है कि उसने एकीकृत गणों के शब्दों के स्वर-भेद के निदर्शनार्थ
स्वग्रन्थ में स्वर-प्रक्रिया में विशेष निर्देश किया हो। चान्द्र व्याकरणस्थ ५ स्वर प्रक्रियांश के सम्प्रति अनुपलब्ध होने से हम कुछ भी निर्णय करने में असमर्थ हैं।
५-पाणिनि के कई गण छोड़ दिए। यथाशौण्डादि (२॥१॥४०) से राजदन्तादि (२।२।३१) पर्यन्त के गण।
पलाशादि (४।३।१४१), रसादि (५।२।९५) तथा देवपथादि १० (५।३।१००) गण।
६-चन्द्राचार्य ने लाघवार्थ पाणिनि के कई गणों के अधिकाक्षर आदि पद को हटाकर गण के प्रारम्भ में लघु पद रखा, अर्थात् लाघवार्थ नाम परिवर्तन किया । यथाक-अपूषादि
(पा. २११४) को । यूपादि
(चान्द्र ४।१।३) रूप में। ख-इन्द्रजननादि
(पा० ४।३।८६) को शिशुक्रन्दादि
(चान्द्र ४।१।३) रूप में। ग-अनुप्रवचनादि (पा० ५।१११११) को उत्थापनादि.
(४।१।१३२) रूप में। २० घ--किंशुलकादि (पा०६।३।११६) को
अञ्जनादि , (चान्द्र २२॥१३२) रूप में। ऐसा लाघव चान्द्र गणपाठ में बहुत्र उपलब्ध होता है।
७-पाणिनि के कई गणों का परिष्कार किया ।यथा-अर्धर्चादिगण । इस गण के विषय में चान्द्र व्याकरण २।२।८३ की टोका भो ६५ द्रष्टव्य है।
८-पाणिनि के कई व्यवस्थित (पठित). गणों को प्राकृतिगप बनाया । यथा- शरादि । इस विषय में चान्द्र व्याकरण ५॥२॥१३४ की वृत्ति द्रष्टव्य है।
१. चान्द्र व्याकरण में स्वरप्रकरण भी था, द्र०-सं० व्या० .शास्त्र का ० इतिहास भाग १, चान्द्र व्याकरण प्रकरण ।