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२/२३ गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता १७७
इसी प्रकार कुछ अन्य गण भी सूत्र और वार्तिकों के योग से बनाए।
३-कुछ नए गण बनाए । यथाक-ऋत्वादि (४।१।१२४) ख-हिमादि (४।२।१३६) ग–वेणुकादि (३।२।६१)
कई विद्वानों का कथन है कि चन्द्रगोमी के वेणुकादि गण (३।२।६१) के आधार पर ही काशिकाकार ने गहादि गण में वेणुकादिभ्यश्छण् (४।२।१३८) गणमूत्र पढ़ा है। द्र०-S.S.G.P.38 ।
४-आचार्य चन्द्र ने लाघवार्थ पाणिनि के कई गणों को मिलाकर एक गण बना दिया। यथा
१० क-सिन्ध्वादि (३।३।६१) में पाणिनि के सिन्ध्वादि और तक्षशिलादि (द्र०--अष्टा० ४।३।६३) गणों को मिला दिया।
ख-कथादि (३।४।१०४) में पाणिनि के कथादि और गुडावि (द्र०-अष्टा० ४।४।१०२,१०३) गणों को एक कर दिया। . ___ हमारे विचार में चन्द्राचार्य का इस प्रकार गणों का एकीकरण १५ करके लाघव का प्रयत्न करना सर्वथा चिन्त्य है। पाणिनि ने इन गणों को पृथक् इसलिए पढ़ा था कि इनसे निष्पन्न शब्दों में स्वरभेद होने से उसे स्वर के अनुरोध से पृथक्-पृथक् अण्-अञ् और ठक-ठत्र आदि प्रत्यय पढ़ने पड़े । अनेक व्याकरणतत्त्वपरिज्ञानरहित लेखक : पाणिनि से उत्तरवर्ती वैयाकरणों द्वारा स्वर की उपेक्षा करने की गई २० लाघवता को अनावश्यक रूप में उसकी सूक्ष्मः मनीषा का चमत्कार मानते. अथवा कहते हैं। हमें ऐसे व्यक्तियों की मनीषा पर ही हसी माती है कि कहां पाणिनि आदि प्राचीन आचार्यों की सूक्ष्म मनीषा, जिन्होंने स्वर जैसे सूक्ष्म भेद का परिज्ञान भी बड़े कौशल और लाधव के साथ दर्शाया', और कहां उत्तरवर्ती वैयाकरणों की स्थूल २५ बदि, जिन्होंने तथा-कथित लाघव करके शब्दों के सूक्ष्म भेद को ही नष्ट कर दिया। प्राचार्य चन्द्र की इस कृति पर तो हमें प्रत्याश्चर्य
११. इसी दृष्टि से काशिकाकार ने ४।२।७४ में 'स्वरे विशेषः। महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य' जैसे स्तुति शब्दों का मुक्तकण्ठ से प्रयोग किया।