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संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास
७. चन्द्रगोमी (सं० १००० वि० पूर्व )
आचार्य चन्द्रगोमी ने स्वशब्दानुशासन से सबद्ध गणपाठ का भी प्रवचन किया था । चन्द्रगोमी तथा उसके व्याकरण के सम्बन्ध में हम इस ग्रन्थ के प्रथमभाग में विस्तार से लिख चुके हैं ।
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चन्द्रगोमी का गणपाठ उसकी स्वोपज्ञ वृत्ति में उपलब्ध होता है । चन्द्र गणपाठ की विशिष्टता
चन्द्रगोमी ने गणपाठ के प्रवचन में पाणिनि का अनुसरण ही नहीं किया अपितु उसने अपने प्रवचन में पाणिनि श्रौर पाणिनि से पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती उपलब्ध सभी सामग्री का उपयोग किया है । १० अतः उसके गणपाठ में पाणिनि से कुछ विशिष्ट भिन्नताएं हैं ।
यथा
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१ - कात्यायन आदि वार्तिककारों द्वारा निर्दिष्ट शब्दों को भी गणका रूप दे दिया है । यथा
क - व्यासादि ( २/४/२१ ) १५ गं - क्षीरपुत्रादि ( ३।१।२४)
ङ - स्वर्गादि (४|१|१३३) छ - ज्योत्स्नादि (४।२।१०७ )
ख - कम्बोजादि ( २४ । १०४ ) घ - देवासुरादि ( ४|१|१३३ ) च - पुण्याहवाचनादि (४|१ | १३४ ) ज - नवयज्ञादि (४/२/१२४ )
२- कई स्थानों में पाणिनीय सूत्रों और वार्तिकों को मिलाकर नए गण बनाये हैं । यथा
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क - ऊषादि (४।२।१२७) गण पाणिनि के ऊषशुषिमुष्कमधो रः ( ५।२।१०७ ) सूत्र तथा रप्रकरणे खमुखकुजेभ्य उपसंख्यानम् ( ५।२।१०७) वार्तिक को मिलाकर बनाया ।
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ख - कृष्यादि (४/२/११६) गण पाणिनि के रजः कृष्यासुति (२११२ ) इत्यादि, दन्तशिखात् संज्ञायाम् (५२०११३) सूत्रों २५ तथा वलचप्रकरणेऽन्येभ्योऽपि दृश्यते ( ५२ ११२) वार्तिक को मिलाकर बनाया ।
ग - केशादि ( ४ |२| ११६) गण पाणिनि के केशाद्वोऽन्यतरस्याम् (२1१०६) सूत्र तथा वप्रकरणे अम्येभ्योऽपि दृश्यते ( ५।२।१०९ ) आदि वार्तिक को मिलाकर बनाया ।