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१७२ संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
१. श्लोकगणकार (वि० सं० १४०० से पूर्व) पाणिनीय व्याकरण ग्रन्थों में श्लोकगणपाठ तथा श्लोकगणकार के अनेक वचन उद्धृत मिलते हैं । यथा
१-सायण धातुवृत्ति पृष्ठ ४१६ पर लिखता है___'अत्रामी भृशादयोऽस्माभिः श्लोकगणपाठानुरोधेन पठिताः।'
यहां श्लोकगणपाठ शब्द से गणरत्नमहोदधि अन्तर्गत श्लोकबद्ध गणपाठ अभिप्रेत है अथवा अन्य, यह कहना कठिन है। क्योंकि इस प्रकरण में गणवृत्तौ के नाम से उद्धृत समस्त पाठ गणरत्नमहोदधि के हैं, यह हम पूर्व लिख चुके हैं
२–सायण पुनः पृष्ठ ४१८ पर लिखता है- . अत्र श्लोकगणकारःसुखदुःखगहनकृच्छाधुपकप्रतीपकरुणाश्च । कृपणः सोढ इतीमे तृपादयो दशगणे पठिताः ॥ इति ।
नागेशभट्ट विरचित लघु और बृहत् शब्देन्दुशेखरों में 'तृपादयः' १५ के स्थान में सुखादयः पाठ है।
यहां पर सायण श्लोकगणकार का उक्त श्लोक उद्धृत करके लिखता है
'प्रत्र गणरत्नमहोदधौ प्रास्यशब्दोऽपि पठ्यते, यवाह प्रास्यमेवास्यम् इति । तृप्रदुःखम्, सोढं सहनम् अभिभवो वा'
इस स्थल पर श्लोकगणकार से गणरत्नमहोदधिकार का मतभेद दर्शाने से स्पष्ट है कि यहां श्लोकगणकार वर्धमान नहीं है। पृष्ठ ४१७ पर सायण गणरत्नमहोदधि के लोहितश्याम आदि श्लोकमण को गणवृत्ति के नाम से उद्धृत करता है। इससे भी इसी बात की पुष्टि होती है कि गणवृत्ति के नाम से उद्धृत उद्धरण वर्धमान के
" हमने काशी में अध्ययन करते हुए 'संस्कृत महाविद्यालय (वर्तमान सं० वि०
वि०) के सरस्वती भवन नामक पुस्तकालय में लीथो प्रेस पर छपी पुस्तक से की थी।