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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
(भाग ३, पृष्ठ ५२६) में लोहितादिडाज्भ्यः क्यष् सूत्र के व्याख्यान में उद्धृत है। वहां तृतीय चतुर्थ चरण का पाठ मूर्छानिद्रा कृपाधूमाः करुणा नित्यचर्मणी है । सायण द्वारा गणवृत्ति के नाम से उद्धृत उद्धरण वस्तुतः वर्धमान विरचित गणरत्नमहोदधि के हैं । उसमें ५ उत्तरार्ध का पाठ है
'मूर्च्छा निद्राकृपाधूमाः करुणा जिल्ह्यचर्मणी ।' गणरत्नमहोदधि पृष्ठ २४५ ।।
माया धातुवृत्ति का पाठ अशुद्ध है । नित्यवर्मणी का कोई अर्थ ही नहीं बनता है । सिद्धान्तकौमुदी का नित्यचर्मणी पाठ भी १० भ्रष्ट हैं । वहां जिह्मचर्मणी पाठ ही होना चाहिए ।
सायण का दूसरा उद्धरण भी गणरत्नमहोदधि से अर्थतः उद्धृत प्रतीत होता है । गणरत्नमहोदधि का पाठ है
'हत् नेण्यधर्मवृत्तिभक्षाभिलाषधर्मवृत्ति वा रहसि वर्तत इत्यन्ये ।' पृष्ठ २४४ ॥
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धातुवृत्ति ग्रन्थ प्रत्यन्त अशुद्ध छपा है । अतः उसके मुद्रित पाठ पर कोई विश्वास नहीं किया जा सकता ।
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सायण का जो तोसरा उद्धरण हमने उद्धृत किया है, उसके दो भाग हैं । प्रथम पठ्यते पर्यन्त गणवृत्ति का है, तथा उत्तर भाग उसकी किसी व्याख्या का है । गणरत्नमहोदधि में भृशादिगण में २० बृहछन्द का पाठ नहीं है । 'भद्र' शब्द का पाठ श्लोक ४४१ के पूर्वार्ध में उपलब्ध होता है ।
चतुर्थ उद्धरण का पाठ अशुद्ध है । गणरत्नमहोदधि में इसका शुद्ध पाठ इस प्रकार है - आण्डरो मूर्खो मुष्करो वा । पृष्ठ २४४ । पञ्चम उद्धरण का भी गणरत्नमहोदधि में शुद्ध पाठ इस प्रकार २५ है - रेफत् सदोष इत्यर्थः । पृष्ठ २४५
उपर्युक्त पाठों को गणरत्नमहोदधि के साथ समता होने से यही सम्भावना है कि सायण द्वारा स्मृत गणवृत्ति वर्धमान सूरिकृत गणरलंमहोदधि ग्रन्थ ही है | सायण के मुद्रित पाठ सभी अशुद्ध हैं । गयाख्याता नाम से उद्धृत उद्धरण
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मल्लिनाथ ने किरातार्जुनीय, शिशुपालवध तथा रघुवंश प्रदि में 'गव्याख्यान' नाम से कई उद्धरण उद्धृत किये हैं । यथा