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गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता
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'संस्कृत व्याकरण में गणपाठ की परम्परा और प्राचार्य पाणिनि' के नाम से छप गया है। गणपाठ का प्रादर्श संस्करण भी प्रकाशित करने का विचार है ।
गणों के दो भेद गणपाठ में जितने गण हैं, उन्हें हम दो विभागों में विभक्त कर ५ सकते हैं। एक वे गण हैं जिनमें शब्द नियमित हैं अर्थात उस गण में जितने शब्द पढ़े हैं, उतने शब्दों से ही उस गण का कार्य होगा । यथा सर्वादि गण'। दूसरे गण वे हैं, जिनमें शब्दों की नियत संख्या अभिप्रेत नहीं है । अन्य शब्दों से भी उक्त गण का कार्य हो जाता है। इस प्रकार के गण वैयाकरणों की परिभाषा में प्राकृतिगण कहाते हैं। जिन गणों में शब्दों का संकलन सीमित होता है, उनके अन्त में शब्दसंकलन की परिसमाप्ति के द्योतन के लिए समाप्त्यर्थक वृत शब्द पढ़ा जाता है । और जो प्राकृतिगण होते हैं उनके अन्त में वत् शब्द का पाठ नहीं होता। यथा। प्रावृत्करणाद् प्राकृतिगणोऽयम् । काशिका २॥१॥४८॥
काशिका में यहां पाठ छपा है-अव्यक्तत्वाच्चाकृतिगणोऽयम् । यह अपपाठ है। पूर्वनिर्दिष्ट पाठ जो कि शुद्ध है, सम्पादक ने टिप्पणी में रखा है। (यह सम्पादक के अज्ञान का द्योतक है) ।
कहीं-कहीं नियत रूप से पठित गण को भी च शब्द के पाठ से आकृति गण माना जाता है। यथा
१-प्राकृतिगणश्च प्रवृद्धादिष्टव्य इति । कुतत एत् ? प्राकृतिगणतां तस्य सूचयितुमनुक्तसमुच्चयार्थस्य चकारस्येह करणात् । न्यास ६।२।१४७॥
१. हम इसे प्रकाशित नहीं कर सके। डा. कपिल देव के पीएच. डी. का निबन्ध 'कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय' से अंग्रेजी में छपा है। उसमें यह भी अंश २५ छप गया है।
२. सर्वादिगण में शब्द नियत होने पर भी कतिपय ऐसे आर्ष प्रयोग देखे जाते हैं। जिनमें सर्वनाम संज्ञा का कार्य होता है। यथा-'प्रत्यतमस्मिन् स्थाने' (प्रापि० पाणि० शिक्षासूत्र ८।१) ।