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१६२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
तथा शुद्धगणा-वक्ष्यति 'लोहितडाभ्य: क्यष्वचनं भृशादिष्वितराणि' इति, 'कण्वात्तु शकलः पूर्वः कतादुत्तर इष्यते' इति च । सैषा गणस्य शुद्धिः । वृत्त्यन्तरेषु तु गणपाठ एव नास्ति, प्रागेव शुद्धिः ।
भाग १, पृष्ठ ४। ___ अर्थात्-कहेगा [काशिकाकार] लोहित और डाजन्तों से क्यष् करना चाहिए, शेष लोहितादि पदों को भृशादि में पढ़ देना चाहिये। तथा शकल शब्द का पाठ कण्व से पूर्व और कत से उत्तर इष्ट है। यह है गण की शुद्धि । अन्य वृत्तियों में गणपाठ नहीं उनमें पहिले ही गण साफ हैं।
काशिकार के गणपाठ की शुद्धि का प्रयत्न अनेक स्थानों पर स्पष्टतया उपलब्ध होता है। वह गोपवनादि गण के सम्बन्ध में लिखता है
एतावत एवाष्टौ गोपवनादयः । परिशिष्टानां हरितादीनां प्रमादपाठः । काशिका २।४।६७।।
अर्थात्-इतने ही आठ गोपवनादि शब्द हैं। अवशिष्ट हरितादि का पाठ प्रमादजन्य हैं।
गणपाठ का आदर्श संस्करण-काशिकाकार के इतना महान् प्रयत्न करने पर भी गणपाठ उत्तरकाल में भ्रष्ट, भ्रष्टतर और भ्रष्टतम होता गया।
आज गणपाठ की यह स्थिति हैं कि गणपाठ के किन्हीं भी दो हस्तलेखों के पाठ परस्पर समान नहीं हैं । काशिका के हस्तलेखों में भी गणपाठ में महद् अन्तर उपलब्ध होता है। ऐसी भयानक स्थिति में जहां गणपाठ के परिशोधन का कार्य बहुत महत्त्व रखता है, वहां यह अत्यधिक परिश्रम भी चाहता है। हमारे मित्र प्रो. कपिलदेव जी साहित्याचार्य एम० ए० ने पीएच० डी० के लिए मेरे कहने से 'पाणिनीय गणपाठ का सम्पादन और तुलनात्मक अध्ययन' कार्य हाथ में लिया। और उन्होंने अनेकों हस्तलेखों और विभिन्न व्याकरणों के गणपाठों के साहाय्य से कई वर्ष प्रयत्न करके पाणिनीय गणपाठ का
आदर्श संस्करण तैयार किया। उन्हें इस कार्य पर पीएच. डी० ३० की उपाधि भी प्राप्त हो गई । गणपाठों का तुलनात्मक अध्ययन अंश