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२/२१ गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता १६१
गणपाठ का अनेकथा प्रवचन-पाणिनि ने अष्टाध्यायो और धातुपाठ का जैसे अनेकधा प्रवचन किया, उसी प्रकार गणपाठ का भी अनेकधा प्रवचन किया था। उसी प्रवचनभेद से गणपाठ के न्यूनातिन्यून दो प्रकार के पाठ उपपन्न हुए। नद्यादि गण (४।२।६७) में पठित पूर्वनगरी पद की व्याख्या करते हुए काशिकाकार ने ५ लिखा है
पौर्वनगरेयम् । केचित्तु पूर्वनगिरीति पठन्ति विच्छिद्य च प्रत्ययं कुर्वन्ति पौरेयम्, वानेयम्, गैरेयम् । तदुभयमपि दर्शनं प्रमाणम् । ___ अर्थात्-[पूर्वनगरी से] पौवनगरेय। कई लोग 'पूर्वनगिरि' पढ़ते हैं और उससे 'पूर्-वन-गिरि' ऐसा विच्छेद करके प्रत्यय करते १० हैं और रूप बताते हैं पौरेयम्, वानेयम्, गैरेयम् । ये दोनों ही दर्शन प्रमाण हैं।
हरदत्त द्वारा स्पष्टीकरण-काशिका के उक्त मत का स्पष्टीकरण करते हुए हरदत्त में लिखा है
उभयथाप्याचार्येण शिष्याणां प्रतिपादनात् । __ अर्थात्-प्राचार्य द्वारा दोनों प्रकार [पूर्वनगरी-पूर्-वन-गिरि] का प्रतिपादन होने से दोनों पाठ प्रमाण हैं । ऐसा ही न्यासकार ने भी लिखा है (भाग १, पृष्ठ ६५९) ।
इस उद्धरण से स्पष्ट है कि प्राचार्य पाणिनि ने गणपाठ का अनेकधा प्रवचन किया था।
गणपाठ के अध्ययनाध्यापन का उच्छेद हम इसी ग्रन्थ के अठारहवें अध्याय (भाग २, पृष्ठ ४) पर लिख चके हैं कि शब्दानुशासन में गणपाठ आदि के पृथक्करण से एक महती हानि हुई । अध्येता लोगों ने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का अध्ययन छोड़ दिया। उसका फल यह हया कि गणपाठ के पाठ में बहुत ही २५ गड़बड़ी हो गई, शुद्ध पाठ लुप्त हो गया। उसकी यह दीन अवस्था देखकर काशिकाकार के महान् परिश्रम से गणपाठ के पाठ का शोधन किया। अतएव उसने काशिका के प्रारम्भ में एक विशेषण रखाशुद्धगणा । इसकी व्याख्या में हरदत्त लिखता है
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