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१५८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास धातुपाठ और गणपाठ में भी पूर्व प्राचार्यों की सामग्री का ग्रहण होने से उनके पाणिनीयत्व का प्रत्याख्यान नहीं हो सकता। इन ग्रन्थों में जहां-कहीं भी कुछ विरोध अथवा न्यूनाधिकता प्रतीत हो, उसका
समाधान महाभाष्यकार का अनुसरण करते हुए' पूर्वाचार्यनिर्देश मान ५ कर ही करना चाहिए।
गणपाठ के दो पाठ हम अष्टाध्यायी और धातुपाठ के प्रकरण में विस्तार से लिख चुके हैं कि इनके पाणिनि द्वारा प्रोक्त ही न्यूनातिन्यून दो-दो संस्करण हैं। एक लघुपाठ है, और दूसरा वृद्धपाठ। इसी प्रकार गणपाठ के भी पाणिनि के दो प्रवचन हैं, अर्थात् दो प्रकार के पाठ हैं-एक लघपाठ और दूसरा वद्धपाठ । गणपाठ का जो सम्प्रति उपलभ्यमान पाठ है, वह उसका वृद्धपाठ है । लघुपाठ इस समय अप्राप्त है।
दो प्रकार के पाठ में प्रमाण-पाणिनि के गणपाठ का दो प्रकार का पाठ है, इसकी सूचना महाभाष्यकार पतञ्जलि के निम्न पाठ से ५ मिलती है । महाभाष्यकार तृज्वत् क्रोष्टुः, स्त्रियां च (७।१।९५,९६) सूत्रों की व्याख्या में लिखते हैं
तृज्वद्धावनिमित्तक: स ईकारः । नाकृते तृज्वद्भावे ईकारः प्राप्नोति । किं कारणम् ? 'ऋन्नेभ्यो ङीप्' इत्युच्यते । ईकारे च तृज्वद्भावः । तदिदमितरेतराश्रयं भवति । इतरेतराश्रयाणि च कार्याणि न प्रकल्पन्ते । एवं तहि गौरादिष पाठादोकारो भविष्यति । गौरादिषु न पठ्यते । नहि किंचित्तुन्नन्तं गोरादिषु पठ्यते । एवं तहि ज्ञापयत्याचार्यः-भवत्यत्र ईकार इति यदयमीकारे तृज्वद्भा शास्ति ।
अर्थात्-तृद्भाव को निमित्त मानकर वह ईकार होता है। तृज्वद्भाव विना किये ईकार प्राप्त नहीं होता। क्या कारण है ? २५ ऋकारान्तों से ङोप होता है, ऐसा कहा है (द्र०-अष्टा० ४।१५)।
ईकार परे होने पर तृज्वद्भाव का विधान किया है (द्र०-अष्टा० ७।१।९६) । यह इतरेतराश्रय होता है (=ईकार हो तो तृज्वद्भाव
१. महाभाष्यकार ने पाणिनीय सूत्रों में प्रतीयमान असामञ्जस्य के निवा. रण के लिए स्थान-स्थान पर 'पूर्वसूत्रनिदेश' का प्राश्रयण लिया है। यथा३० निर्देशोऽयं पूर्वसूत्रेण वा स्यात् ।७।१।१८॥