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गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्यात
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के पाठ में अर्थात् त्यदादियों से किम् को पूर्व पढ़ने में सिद्ध नहीं होता, इसलिए यथान्यास ही पाठ ठीक है।
यहां स्पष्ट ही न्यासकार ने पूर्व समाधान से असन्तुष्ट होकर समाधानान्तर किया, और गणपाठ के यथास्थित पाठ को युक्तियुक्त दर्शाया। इससे तथा पूर्वनिर्दिष्ट दो प्रमाणों से स्पष्ट है कि न्यासकार ५ गणपाठ को पाणिनीय हो मानता है, परन्तु जहां-जहां दोनों में उसे विरोध प्रतीत हुअा और उसका वह समाधान नहीं कर सका, वहांवहां उसने सूत्रपाठ को प्रधानता देने के लिए प्रौढ़िवाद से गणपाठ के अपाणिनीयत्व का प्रतिपादन किया है।
न्यासकार की भ्रान्ति का कारण और समाधान न्यासकार १० जिनेन्द्रबुद्धि को गणपाठ के पाणिनीयत्व में जो भ्रान्ति हुई है, उसका कारण प्रोक्त और कृत ग्रन्थों के भेद का वास्तविक परिज्ञान न होना है। साम्प्रतिक अनुसंधानकर्ता भी प्रोक्त और कृत ग्रन्थों में भेद-ज्ञान नहीं रखते, । इसलिए उनके द्वारा निकाले गए परिणाम भी प्रायः असत्य होते हैं । प्रोक्त और कृत ग्रन्थों में क्या भेद होता है, यह हम विस्तार १५ से पाणिनीय धातुपाठ के प्रकरण में लिख चुके हैं, अतः उसका पुनः पिष्टपेषण करना अयुक्त है। न्यासकार को धातुपाठ के पाणिनीयत्व के संबन्ध में भी प्रोक्त और कृत ग्रन्थों के भेद का अपरिज्ञान होने से जो भ्रान्ति हुई, उसका निराकरण हम पाणिनीय धातुपाठ के प्रसङ्ग में कर चुके हैं। __ पाणिनि का गणपाठ उसका प्रोक्त ग्रन्थ है, इसलिए उसमें ग्रादि से अन्त तक की सम्पूर्ण वर्णानुपूर्वी पाणिनि को अपनी नहीं है। पाणिनि ने पूर्वपरम्परा से प्राप्त गणपाठों से उचित सामग्री को कहीं पूर्णतया उन्हीं के शब्दों में, कहीं स्वल्प परिवर्तन अयवा परिवर्धन करके अपने गणपाठ का प्रवचन किया है । पूर्व उद्धृत।
२५ वाजासे । ४।१।१०५॥ वष्कयासे । ४।१।८६॥
राजासे । ५।१११२८॥ हृदयासे। २१११३०॥ इत्यादि गणसूत्र पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती प्राचार्यों के गणपाठों से अक्षरशः ग्रहण कर लिए हैं, यह हम पूर्व (पृष्ठ १५१) लिख चुके हैं। इसलिए जैसे पाणिनीय अष्टाध्यायी में पूर्व प्राचार्यों के सूत्रों ३० के निर्देश से सूत्रपाठ का पाणिनीयत्व खण्डित नहीं होता, उसी प्रकार