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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
२-कम्बलाच्च संज्ञायाम् (५।१३) सूत्र के विषय में न्यासकार लिखता है
'प्रथ गवादिष्वेव कम्बलाच्च संज्ञायामिति कस्मान्न पठति । तत्र पाठे न कश्चिद् गुरुलाघवकृतो विशेष इति यत्किञ्चिदेतदिति' । ५ भाग २, पृष्ठ ६।
अर्थात्-गवादि (५॥१॥२) गण में ही कम्बलाच्च संज्ञायाम् सूत्र क्यों नहीं पढ़ता। वहां पाठ करने में [और यहां पाठ करने में] कोई गौरवलाघवकृत विशेषता तो है नहीं, इसलिए वहां का पाठ
प्रयोजनरहित है। १० इस स्थान पर न्यासकार ने कम्बलाच्च संज्ञायाम् सूत्र को
सूत्रपाठ में पढ़ने और गणपाठ में पढ़ने के गौरव-लाघव पर विचार किया है। यह विचार तभी उत्पन्न हो सकता है, जब कि दोनों का प्रवक्ता एक ही प्राचार्य हो। भिन्न-भिन्न प्रवक्ता मानने पर उक्त
विचार किया ही नहीं जा सकता। इतना ही नहीं, कस्मान्न वाक्य १५ में पठति क्रिया का कर्ता पाणिनि के अतिरिक्त और कोई नहीं माना
जा सकता, क्योंकि कम्बलाच्च संज्ञायाम सूत्र का पाठ पाणिनि का है, अतः उक्त वाक्य में पठति क्रिया का कर्ता भी पाणिनि ही है यह निश्चित है।
३-न्यासकार ने अष्टा० ५।३२ के सूत्रपाठ और गणपाठ की तुलना करके सूत्रपाठ में जो दोष दिखाई पड़ा, उसका समाधान न सूत्रकारस्येह गणपाठः इति नासावुपालम्भमर्हति अर्थात् यहां सूत्रकार का गणपाठ नहीं है (गणपाठ अन्य प्राचार्य का है) इसलिए वह उपालम्भ योग्य नहीं हैं, ऐसा समाधान करके उक्त समाधान से सन्तुष्ट न होकर समाधानान्तर लिखता है_ 'अपि च त्यदादीनां यत् यत् परं तत्तच्छिष्यते इति किमः सर्वे__ रेव त्यदादिभिः सहविवक्षायां शेष इष्यते-त्वं च कश्च को, भवांश्च कश्च को । स चैवं पाठे न सिद्धयतीति यथान्यासमेवास्तु।
अर्थात्-'त्यदादियों में जो-जो परे होता है, उसका शेष इष्ट है। इस नियम से किम् का सभी त्यदादियों के साथ सहविवक्षा में शेषत्व ३. इष्ट है । यथा-त्वं च कश्च को, भवांश्च कश्च को । वह उक्त प्रकार