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गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता
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(ङ) एवं तहि सिद्धे सति यत्सवनादिषु अश्वसनिशब्दं पठति, तज्ज्ञापयत्याचार्यो निणन्तादपि षत्वं भवतीति । महा० ८|३|११०॥ (च) प्राचार्यप्रवृत्तिर्ज्ञापयति भवत्युकरानो णत्वमिति यदयं क्षुभ्नादिषु नृनमनशब्दं पठति । यस्तहि तृप्नोतिशब्दं पठति । महा० १|१| आ० २ (पृष्ठ १०८ निर्णयसागर )
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि महाभाष्यकार सूत्रपाठ के समान ही गणपाठ का प्रवक्ता भी प्राचार्य पाणिनि को मानते हैं । महाभाष्यकार जैसे मूर्धाभिषिक्त प्राचार्य के प्रमाणों के सम्मुख जिनेन्द्रबुद्धि का कथन क्योंकर प्रमाण हो सकता है ?
जिनेन्द्रबुद्धि का वदतोव्याघात - धातुपाठ के प्रकरण में ही हम १० लिख चुके हैं कि जिनेन्द्रबुद्धि धातुपाठ के पाणिनीयत्य का प्रतिपादन करते हुए अनेक स्थानों में अवरुद्ध कण्ठ से उसे पाणिनीय भी स्वीकार करता है । उसी प्रकार गणपाठ के विषय में उसके परस्पर विरुद्ध वचन उपलब्ध होते हैं । गणपाठ के अपाणिनीयत्व प्रतिपादक वचन उदधृत कर चुके हैं, अब हम उसके कतिपय ऐसे वचन उद्धृत करते हैं, जिनमें वह गणपाठ को पाणिनीय भी मानता है । यथा
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१ - उपदेशेऽजनुनासिक इत ( प्रष्टा ० १ ३ २ ) के 'उपदेश' पद की व्याख्या में काशिकाकार ने लिखा है-उपदेश: शास्त्रवाक्यानि, सूत्रपाठ खिलपाठश्च । अर्थात् उपदेश नाम शास्त्रवाक्यों का है, वह सूत्रपाठ और खिलपाठ रूप है । न्यासकार इसकी व्याख्या में लिखता २० है
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'सूत्रपाठ: खिलपाठश्च । खिलपाठो धातुपाठः । चकारात् प्रातिपदिक पाठश्च' । यहाँ न्यासकार ने उपदेश पद की व्याख्या में ' सूत्रपाठ के समान ही प्रातिपदिकपाठ अर्थात् गणपाठ का भी निर्देश किया हैं । यदि सूत्रपाठ के समान ही गणपाठ भी पाणिनीय अभिप्र ेत न २५ होता, तो उसका पाणिनीय उपदेश पद से कथंचित भी ग्रहण नहीं हो सकता । यतः न्यासकार उपदेश पद की व्याप्ति गणपाठ पर्यन्त मानता है, अतः स्पष्ट है कि गणपाठ भी पाणिनीय है । अन्यथा - सूत्रपाठ और गणपाठ के प्रवक्ताओं में भिन्नता होने पर पाणिनीय सूत्र की प्रवृत्ति गणपाठ में नहीं हो सकती ।
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