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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
को अपने प्राचार्यों से प्राप्त किया', अर्थात् ये पाणिनीय नहीं हैं।
गणपाठ का पाणिनीयत्व-न्यासकार को छोड़कर प्रायः अन्य सभी पाणिनीय वैयाकरण इस गणपाठ को पाणिनि का प्रवचन मानते हैं। पुनरपि हम इसके पाणिनीयत्व के ज्ञापक कतिपय प्रमाण उपस्थित करते हैं
१- गणशैली को अपनाने वाला कोई भी वैयाकरण विना गणपाठ का निर्धारण किए अपने शब्दानुशासन का प्रवचन नहीं कर सकता । पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन में सर्वत्र गणशैली का आश्र
यण किया है, इसलिए आवश्यक है कि पाणिनि शब्दानुशासन के १० प्रवचन से पूर्व, तत्तद्गणसंबद्ध सूत्रों के उपदेश से पूर्व उन-उन गणों के
स्वरूप का निर्धारण करे, और अनन्तर उसके साहाय्य से शब्दानुशासन का प्रवचन करे। इस दृष्टि से यह सुतरां सिद्ध है कि पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन के गणतंबद्ध सूत्रों के प्रवचन से पूर्व उन-उन
गणों के स्वरूप का निर्धारण अवश्य किया होगा, और वह निर्धारण १५ ही बतमान पाणिनीय-संप्रदाय-संबद्ध गणपाठ है।
२-भगवान भाष्यकार ने जसे महाभाष्य में अनेक स्थानों पर सूत्रपठित शब्द-विशेषों से विभिन्न प्रकार के ज्ञापन करते हुए ज्ञापति क्रिया के साथ आचार्य पद का निर्देश किया है, उसी प्रकार गणपाठ
में पठित अनेक विशिष्ट शब्दों से भी अनेक अर्थविशेषों का ज्ञापन २० करते हुए प्राचार्य पद का प्रयोग किया है । यथा
(क) यदयं युक्तारोह्यादिषु एकशितिपाच्छब्दं पठति तज्ज्ञापयत्याचार्यो निमित्तस्वरान्निमित्तिस्वरो बलीयानीति । महा० २।१।१।।
(ख) यदयं कस्कादिषु भ्रातुष्पुत्रशब्दं पठति तज्ज्ञापत्याचार्यो नैकादेशनिमित्तात् षत्वं भवतीति । महा० ८।३।११॥ २५ (ग) एवं ताचार्यप्रवृत्तिपियति नोदात्तनिवृत्तिस्वरः शुन्य
वतरति यदयं श्वनशब्दं गौरादिषु पठति, अन्तोदात्तार्थं यत्नं करोति, सिद्धं हि स्यान्डीपव । महा० १।४।२७,६।४।२२ ।।
(घ) एवं ताचार्यप्रवृत्तिापयति न तद्विशेषेभ्यो भवति, यदयं विपाटशब्दं शरत्प्रभृतिषु पठति । महा० १।१।२२ ।। ३० १. दी स्ट्रक्चर आफ अष्टाध्यायी, पृष्ठ ६१।