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________________ २/२० गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता १५३ २ - शब्दोऽयं द्वयादिषु पठ्यते तस्य द्वयादिभ्यः पर्युदासः क्रियते । तस्मात् सर्वनाम्नोऽपि स्वशब्देनोपादानम् । यद्येवं द्विशब्दात् पूर्व किंशब्दः पठितव्यः । एवं हि तस्य पृथग्रहणं न कर्तव्यं भवति । सत्यमेतत् । न सूत्रकारस्य इह गणपाठ इति नासावुपालम्भमर्हति । ५।३।२।। अर्थात् – 'किम्' शब्द को सर्वादि गण में द्वयादि शब्दों में पढ़ा है । उसका श्रद्वयादिभ्यः पद से प्रतिषेध प्राप्त होता है । उस प्रतिषेध को दूर करने के लिए सूत्र में सर्वनाम होते हुए भी 'किम्' शब्द का ग्रहण किया है । यदि ऐसा ही है तो 'किम्' शब्द को 'द्वि' से पहले पढ़ देना चाहिए [ ऐसा करने पर न प्रतिषेध प्राप्त होगा और न १० उसको हटाने के लिए 'किम्' का ग्रहण करना होगा । ] सत्य है । यहां सूत्रकार का गणपाठ नहीं है ( अर्थात् गणपाठ का कर्ता अन्य है), इसलिए सूत्रकार को उपालम्भ नहीं दिया जा सकता । कुछ श्रंश का वार्तिककार से भी उत्तरकालीनत्व - न्यासकार गणपाठ के कुछ अ ंश को वार्तिककार से भी उत्तरकालीन मानता है । वह लिखता है - १५ ३ – यद्येवं 'पद्यत्यतदर्थे' (६।३।५३ ) 'पद्भाव इके चरता - वुपसंख्यानम्' कस्माद् उपसंख्यायते ? नैष दोषः । पादः पदित्यस्यापौराणिकत्वात् |४|४|१० ॥ I अर्थात् - [ पर्पादिगण में पठित 'पाद: पत्' सूत्र से ही ष्ठन् और २० पद्भाव होकर पदिकः पदिकी प्रयोग उपपन्न हो जाएंगे ] । यदि ऐसा है, तो पद्यत्यतदर्थे (६।३।५३) सूत्र पर पद्भाव इके चरतावुपसंख्यानम् वार्तिक पढ़कर पद्भाव के विधान की क्या आवश्यकता है ? यह कोई दोष नहीं है, पादः पत् गणसूत्र के आधुनिक होने से । उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि जिनेन्द्रबुद्धि पाणिनीय सम्प्र - २५ दाय संबद्ध गणपाठ को केवल ग्रपाणिनीय ही नहीं मानता, अपितु उसके कुछ अंश को वह वार्तिककार से भी उत्तरकाल का मानता है । आई. एस. पावते-न्यासकार के उक्त वचनों तथा कतिपय अन्य वचनों के आधार पर आई. एस. पावते ने भी गणपाठ के विषय में लिखा है कि अष्टाध्यायी के कर्ता ने गणपाठ तथा धातुपाठ दोनों ३०
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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