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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
के सूत्रों को ही अपने प्रवचन में स्थान दे दिया । अत एव भाष्यकार ने भी स्पष्ट कहा है
निर्देशोऽयं पूर्वसूत्रेण वा स्यात् ।७।१।१८।। काशिकाकार ने भी ७ ३।१०५ को व्याख्या में लिखा हैप्राङ् इति पूर्वाचायनिर्देशेन तृतीयैकवचनं गृह्यते ।
इन निर्देशों से स्पष्ट है कि प्राचार्य पाणिनि से पूर्ववर्ती अनेक वैयाकरणों के गणपाठ विद्यमान थे। प्राचाय पाणिनि ने उनमें कहीं पर परिष्कार करके और कहीं पर यथातथरूप में ही उनको अपने गण-प्रवचन में स्वीकार कर लिया है।
५. पाणिनि (सं० २९०० वि० पू०) प्राचार्य पाणिनि का गणपाठ हमें उपलब्ध है, यह अत्यन्त सौभाग्य 'का विषय है । यदि यह लुप्त हो गया होता, तो पाणिनीय शब्दानुशासन के गणसंबन्धी सूत्रों का पूर्ण तात्पर्य कभी समझ में न पाता।
पाणिनीय वैयाकरण जिस गणपाठ को अपनाते हैं, उसके पाणिनीयत्व१५ अपाणिनीयत्व विषय में प्राचीन ग्रन्थकारों में मतवैभिन्न्य उपलब्ध होता है । इसलिए उस पर कुछ विचार करना उचित है
गणपाठ का अपाणिनीयत्व-काशिका के व्याख्याता जिनेन्द्रबुद्धि ने अपने न्यास ग्रन्थ में कई स्थानों पर लिखा है कि यह गणपाठ पाणिनीय नहीं है । यथा
१-अथ गण एव कौशिक ग्रहणं कस्मान्न कृतम् ? कः पुनरेवं सति गुणो भवति ? सूत्रे पुनर्ब नुग्रहणं न कर्तव्यं भवति । सत्यमेतत् अपाणिनीयत्वाद् गणस्य नैवं चाकरणे पाणिनिरुपालम्भमर्हति । ४।१।१०६।।
अर्थात्-[बनु शब्द गर्गादि में पढ़ा है, उसका प्रयोजन लोहि२५ तादि अन्तर्गत होने से 'एफ' विधान है । यदि ऐसा है तो] गर्गादिगण
में हो बभ्रु के साथ कोशिक का ग्रहण क्यों नहीं किया ? इस प्रकार करने में क्या लाभ होता ? सूत्र में वभ्र शब्द के ग्रहण की आवश्यकता न होतो। सत्य है, गणपाठ के अपाणिनीय होने से उक्त प्रकार निर्देश न करने के विषय में पाणिनि उपालम्भ के याग्य नहीं है।