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गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता
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है कि पाणिनि ने उन अंशों को अपने से पूर्ववर्ती किन्हीं गणपाठों से उसी रूप में ग्रहण कर लिया है। यथा
वाजासे |४|१|१०५
राजा से | ५|१|१२८
TS |४|११८६ | हृदयासे |५|१|१३||
इन गणसूत्रों में से शब्द से श्रसमासे का निर्देश है । पाणि - ५ नीय शब्दानुशासन में कहीं पर भी असमास के लिए अस का निर्देश उपलब्ध नहीं होता । पाणिनि से पूर्ववर्ती ऋक्तन्त्र में इस प्रकार के निर्देश बहुधा उपलब्ध होते हैं। यथा
समासे का मासे
स्ववरे का रे
लघु का घु स्तोभे का भे
शब्द से ।'
शब्द से ।
शब्द से 13
शब्द से ।
श्रौङ श्रापः | ७|१|१८|
प्राङि चापः | ७ | ३|१०५॥
श्राङो नाऽस्त्रियाम् ॥७३॥१२०॥
इसी प्रकार अनेक संज्ञाशब्दों का उसके अन्त्य अक्षर से निर्देश मिलता है । इनकी पूर्वनिर्दिष्ट गणसूत्रों में प्रयुक्त असे पद के साथ तुलना करने से निश्चित है कि पाणिनि ने अपने गणपाठ के प्रवचन १५ में पूर्वाचार्यों के उक्त गणसूत्रों को उसी रूप में संगृहीत कर लिया है, उसमें स्वशास्त्र के अनुसार परिष्कार भी नहीं किया । श्राचार्य पाणिनि की यह शैली उसके शब्दानुशासन में भी परिलक्षित होती है । यथा
इन सूत्रों में स्मृत प्राङ् और और प्रत्यय पाणिनि के शब्दानुशासन में कहीं पर भी पठित नहीं है। यहां पाणिनि ने पूर्व आचार्यों
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( पूर्ण संख्या
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१. मासे घमृति ३।५।३० (पूर्ण संख्या १०३ ) ।। सप्रकृतिर्मासे संकृकयोः । २५ ३।७१५; (पूर्ण संख्या १२५ ) ।
२. न वृद्ध ं रे ३।११८; (पूर्ण संख्या ६८ ) ॥ २३६॥ ; ११९) । ३. युग्मं घु ४।३।१; (पूर्ण संख्या २३६ ) ॥
४. भे स्वे मान्तस्थी ४।१।१० ; ( पूर्ण संख्या १५० ) ।