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गणपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता
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हो, तृज्वद्भाव होवे तो ईकार हो ) । इतरेतराश्रय कार्य सिद्ध नहीं होते । अच्छा तो गौरादि (गणपाठ ४|१|४१ ) पाठ से ईकार हो जाएगा (अर्थात् गौरादि में तुन्नन्त क्रोष्टु शब्द पढ़ा है ) । गौरादि में नहीं पढ़ा जाता । कोई भी तुन्नन्त शब्द गौरादि में नहीं पढ़ा। अच्छा तो प्राचार्य बतलाते हैं कि यहां ईकार होता है, जो यह [ प्राचार्य ] ५ ईकार परे रहने पर तृज्वद्भाव का विधान करते हैं ।
इस उद्धरण में दो परस्पर विरुद्ध बातें कही प्रतीत होती हैं । पहले कहा है कि क्रोष्टु शब्द गौरादि ( ४ | १|४१) गण में पढ़ा है । अगले वाक्य में कहा कि कोई भी तुन्नन्त गौरादि में नहीं पढ़ा । जहां पर इस प्रकार का विरोध होता है, इसके समाधान का मार्ग स्वय भाष्यकार ने ऋलृक् सूत्र के भाष्य में दर्शाया है
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पक्षान्तरैरपि परिहारा भवन्ति । १|१| प्रत्या० सूत्र २ ।
अर्थात् - जहां विरोध की प्रतीति हो, वहां पक्षान्तर मानकर समाधान करना चाहिए ।
इसी नियम से यहां भी प्रतीयमान विरोध के परिहार का मार्ग १५
कोष्ट शब्द का पाठ
यही है कि गणपाठ के जिस पाठ में गौरादि में था, उसे मानकर पूर्व समाधान दिया और जिस पाठ में गौरादि में कोष्ट शब्द का पाठ नहीं था उसे मान कर कहा कि गौरादि में कोई तुन्नन्त शब्द नहीं पढ़ा । यदि पक्षान्तर से परिहार न माना जाए तो भाष्यकार का उक्त कथन परस्परविरुद्ध होने से प्रमत्तगीत होगा । महाभाष्य के इस स्थल की व्याख्या करते हुए कैयट ने स्पष्ट लिखा है
गौरादिपाठादिति - पृथिवी क्रोष्टु पिप्पल्यादयश्च' इति छेदाध्यायिनः पठन्ति । नहि किञ्चिदिति - संहिताध्यायिनो न पठन्ति ।
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अर्थात् - गौरादि गण में पृथिवी क्रोष्टु पिप्पल्यादयश्च ऐसा पाठ २५ छेदाध्यायी पढ़ते हैं । संहिताध्यायी [ उक्त पाठ ] नहीं पढ़ते ।
हमारे विचार में यहां छेदाध्यायी से गणपाठ के वृद्धपाठ अध्येताभित हैं और संहिताध्यायी से लघुपाठ के अध्येता । वृद्ध पाठ में पिप्पल्यादयश्च गणसूत्र के उदाहरणरूप पृथिव, कोष्टु आदि