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१४८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
भागवृत्तिकारस्तु नप्तृशब्दमपि स्वस्रादिषु पठित्वा नप्ता कुमारी इत्युदाजहार' । शब्दकौस्तुभ, भाग ३, पृष्ठ १०।।
'भागवृत्तिकृद् नप्तृशब्दं स्वत्रादौ पठितवान्' । दुर्घटवृत्ति, पृष्ठ ७४ ।
हमारे विचार में पुरुषोत्तमदेव के पाठ में कुछ भ्रंश हुआ है। सम्भव है यहां नप्तेति भागवृत्तिः नप्त्रीति भागुरिः ही मूल पाठ हो,
और लेखक के दृष्टिदोष से दोनों नामों में 'भाग' शब्द की समानता के कारण लेखन में पाठ छूट गया हो, अथवा मुद्रणकाल में संशोधक के दृष्टिदोष से पाठ रह गया हो ।
कुछ भी हो, भागुरि का गणपाठप्रवक्तृत्व तो उभयथा प्रज्ञापित होता है। नप्तेति भागुरिः पाठ से प्रतीत होता है कि भागुरि ने 'स्वस्रादि' गण में 'नप्तृ' का भी पाठ किया था। नप्त्रीति भागुरिः से प्रज्ञापित होता है कि भागुरि ने 'स्वस्रादि' गण में 'नप्तृ' का पाठ नहीं किया था। भागुरि ने स्वस्रादि गण पढ़ा था, यह तो सर्वथा
१५ स्पष्ट है।
२. शन्तनु (सं० ३००० वि० पूर्व०) आचार्य शन्तुनु कृत शब्दानुशासन के उपलभ्यमान एकदेश फिटसत्रों में कुछ गणों का निर्देश मिलता है। यथा-घतादि, प्रामादि । ये नियतपठितगण नहीं हैं, आकृतिगण हैं, ऐसा आधुनिक व्याख्याताओं का मत है। यदि यह स्वीकार कर भी लिया जाये तब भी उसके शब्दानुशासन में गणपरम्परा तो माननी ही होगी। शन्तनु के काल आदि के विषय में 'फिटसूत्रों का प्रवक्ता और व्याख्याता, नामक २७ वें अध्याय में लिखेंगे।
३. काशकृत्स्न (स० ३००० वि० पू०) २५ काशकृत्स्न के धातुपाठ का इसी भाग में पूर्व वर्णन कर चके हैं।
धातुपाठ के पृथक् प्रवचन करने वाले वैयाकरण ने गणपाठ का भी पृथक प्रवचन अवश्य किया होगा, इसमें सन्देह का कोई अवसर नहीं।