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संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
उत्तरकाल में अध्येताओं के मतिमान्द्य तथा आयु-ह्रास के कारण जब समस्त वाङमय में संक्षेपीकरण प्रारम्भ हुआ, तब शब्दानुशासनों को भी संक्षिप्त करने के लिये समानकार्यज्ञापनार्थ निर्देष्टव्य तत्तद् गण अथवा समुदाय के प्रथम शब्द के साथ आदि अथवा प्रभृति शब्द को जोड़कर सूत्रपाठ में रखा और आदि पद से निर्देष्टव्य शब्दसमूहों को सूत्रपाठ से पृथक् पढ़ा।
गणशैली का उद्भव और पूर्व वैयाकरणों द्वारा प्रयोग-गणशैली के उद्भव के मूल में शास्त्र का संक्षेपीकरण मुख्य हेतु है। उसी
लाघव के लिए शास्त्रकारों ने गणशैली को जन्म दिया । इस गणशैली १० का प्रयोग पाणिनि से पूर्ववर्ती वैयाकरणों ने भी अपने शब्दानुशासनों
में किया है। उनके कतिपय निर्देश पूर्ववैयाकरणों के उपलब्ध सूत्रों और वैदिक व्याकरणों में उपलब्ध होते हैं।'
पाणिनि से पूर्ववर्ती गणपाठ-प्रवक्ता प्राचार्य पाणिनि से पूर्ववर्ती वैयाकरणों के शब्दानुशासन इस १५ समय उपलब्ध नहीं, अतः किस-किस वैयाकरण आचार्य ने अपने
शब्दानुशासन के साथ गणपाठ का प्रवचन किया था, यह सर्वथा
तसिल का प्रयोग है, । 'गोतः' में तपरकरण नहीं हो सकता, क्योंकि तपरकरण तत्काल वर्गों के ग्रहण के लिये स्वरों के साथ ही किया जाता है गो संज्ञा मान लेने पर 'द्यो' शब्द के उपसंख्यान अथवा 'पोतो णित्' पाठान्तर कल्पना की आवश्यकता भी नहीं रहती।
१. इस विषय के विस्तार के लिए देखिए हमारे मित्र प्रो० कपिलदेवजी, साहित्याचार्य, एम. ए., पी. एच. डी. द्वारा लिखित 'संस्कृत व्याकरणशास्त्र में गणपाठ की परम्परा और प्राचार्य पाणिनि' नामक निबन्ध का प्रथम और द्वितीय अध्याय । यह ग्रन्य 'भारतीय प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान' (अजमेर) की ओर से छपा है और रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ (सोनीपत) से प्राप्त होता है । सम्पूर्ण शोध ग्रन्थ अंग्रेजी में कुरुक्षत्र विश्वविद्यालय से छप चका है। इसी विषय पर एस. एम. अयाचित का 'गणपाठ ए क्रिटिकल स्टडि' नाम निबन्ध भी उपयोगी है । यह निबन्ध (लिङ ग्विस्टिक सोसाइटी
आफ इण्डिया' डक्कन कालेज पूना की) 'इण्डियन लिङ् ग्विस्टिक' पत्रिका के ३० भाग २२ सन् १९६१ में छपा है।