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________________ २/१६ धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (३) १४५ शब्द का प्रयोग उसी ग्रन्थ के लिए होता है, जिसमें केवल प्रातिपदिक शब्दों के समूहों का संकलन है, अर्थात् गणपाठ शब्द वैयाकरणनिकाय में शुद्ध यौगिक न रह कर योगरूढ़ बन गया है। ___ गणपाठ का सूत्रपाठ से पार्थक्य-अति पुराकाल में जब शब्दों का उपदेश प्रतिपद-पाठ द्वारा होता था, तब शब्दस्वरूपों की समा- ५ नता के आधार पर कुछ शब्दसमूह निर्धारित किए गए होंगे। उत्तरवर्ती काल में जब शब्दोपदेश ने प्रतिपद-पाठ की प्रक्रिया का परित्याग करके लक्षणात्मक रूप ग्रहण कर लिया, उस काल में भी समान कार्य के ज्ञापन के लिए निर्देष्टव्य प्रातिपदिक अथवा नामशब्दों के समूहों को तत्तत् सूत्रों में ही स्थान दिया गया। और उस समूह के आदि १० (=प्रथम) शब्द के आधार पर ही प्रारम्भ में कुछ संज्ञाएं रखी गई। उत्तरकाल में अर्थ की दृष्टि से अन्वर्थ और शब्दलाघव की दृष्टि से एकाक्षर संज्ञानों की प्रकल्पना हो जाने पर भी अति-पुरा: काल की प्रथम शब्द पर प्राकृत संज्ञा का व्यवहार पाणिनोय व्याकरण में भी क्वचित सुरक्षित रह गया है। तस्य पाणिनिरिव अस भुवि इति गणपाठः । न्यास १।३।२२।। १. एवं हि श्रूयते-बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्र प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्दपारायणं प्रोवाच, नान्तं जगाम । महा० नवा० पृष्ठ ५० (निर्णयसागर)। २. महाराज भोज द्वारा प्रोक्त सरस्वतीकण्ठाभरण में यह शैली देखी जा २० सकती है। ३. पाणिनि के शास्त्र में एकाक्षर से बड़ी जो भी संज्ञाएं हैं, वे सब अन्वर्थ हैं । परन्तु एक 'नदी' संज्ञा ऐसी है, जो महती संज्ञा होते हुए भी अन्वर्थ नहीं है। यह संज्ञा पूर्वाचार्यों द्वारा गणादि शब्द के आधार पर रखी गई संज्ञाओं में से बची हुई संज्ञा है। अर्थात् पूर्वाचार्यों ने स्त्रीलिंग दीर्घ ईकारान्त शब्दों २५ का जो समूह पढ़ा होगा, उसमें नदी शब्द का पाठ प्रथम रहा होगा । उसी के आधार पर उस समुदाय को नदी संज्ञा रखी गई होगी (आधुनिक परिभाषा में ऐसे समुदाय को नद्यादि कहा जाता है)। इसी प्रकार की अग्नि' और 'श्रद्धा' दो संज्ञाए कातन्त्र व्याकरण में उपलब्ध होती हैं (इदुदग्निः' २११८; 'पा श्रद्धा' २३१०१०)। इन संज्ञायों के प्रकाश में पाणिनि के "गोतो णित्' (७।११९०), -सूत्र में 'गो' शब्द प्रोकारान्तों की संज्ञा प्रतीत होती है, 'गोत:' में पञ्चम्यर्थक
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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