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संस्कृत-व्याकरण- शास्त्र का इतिहास
परिचय - गुणरत्न सूरि ने क्रियारत्नसमुच्चय के अन्त में ६६ श्लोकों में गुरुपर्वक्रम-वर्णन किया है। इसमें ४६ पूर्व गुरुम्रों का उल्लेख है । गुणरत्न सूरि के साक्षात् गुरु का नाम श्री देवसुन्दर था (श्लोक ५६) । देवसुन्दर के पांच उत्कृष्ट शिष्य थे । उनके नाम श्री ज्ञानसागर, श्री कुलमण्डन, श्री गुणरत्न, श्री सोमसुन्दर और श्री साधुरत्न थे । श्राद्ध प्रतिक्रमण की सूत्र - वृत्ति से भी इसी की पुष्टि होती है ।'
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काल - प्राचार्य गुणरत्न सूरि ने क्रियारत्नसमुच्चय लिखने के काल का निर्देश स्वयं इस प्रकार किया है
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काले षड्रसपूर्व १४६६ वत्सरमिते श्री विक्रमार्काद् गते गुर्वावशवशाद् विमृश्य च सदा स्वान्योपकारं परम् । ग्रन्थं श्रीगुणरत्नसूरिरतनोत् प्रज्ञाविहीनोप्यमु निहेतूपकृतिप्रधानजननैः शोध्यस्त्वयं धीधनैः || ६३ || पृष्ठ ३०९ । इस श्लोक के अनुसार गुणरत्न सूरि ने वि० सं० १४६६ में क्रियारत्न समुच्चय लिखा था ।
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क्रियारत्नसमुच्चय-गुणरत्न सूरि ने हैम धातुपारायण के अनु सार क्रियारत्नसमुच्चय ग्रन्थ लिखा है। इसमें प्राचीन मत के अनुसार सभी धातुओं के सभी प्रक्रियाओं में रूपों का संक्षिप्त निर्देश किया है। इस ग्रन्थ में धातुरूपसम्बधी अनेक ऐसे प्राचीन मतों का उल्लेख है, जो हमें किसी भी अन्य व्याकरण ग्रन्थ में देखने को नहीं मिले। इस २० दृष्टि से यह ग्रन्थ संक्षिप्त होता हुमा भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। पं० अम्बालाल प्रो० शाह ने क्रियारत्नसमुच्चय का परिमाण ५६६१ श्लोक लिखा है । ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थमान ५७७८ छपा है ।
३ - जयवीर गणि (सं० १५०१ से पूर्व )
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हैम धातुपाठ पर जयवीर गणि की एक अवचूरी व्याख्या उपलब्ध होती है । इसका लेखनकाल वि० सं १५०१ वैशाखसुदि ३ सोमवार है । यह भुवनगिरि पर लिखी गई है । द्र० विक्रमविजय सम्पादित हैम-धातुपाठ प्रवचूरी, पृष्ठ १११ ।
यह काल तथा लेखन स्थान मूल ग्रन्थ के लिखने का हैं अथवा
१. द्र० क्रियारत्नसमुच्चय की अंग्रेजी भूमिका पृष्ठ १, टि० ४ । २. यहां पाठभ्रंश है । ३. वही दीपोत्सवी अंक, पृष्ठ ८८ ।