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परन्तु वहां का जलवायु मेरे लिए सर्वथा प्रतिकल था। अतः ट्रस्ट के अधिकारियों ने सं० २०२६ के अन्त में ट्रस्ट का कार्य सोनीपत (हरियाणा) में स्थानान्तरित किया । मैं उससे लगभग दो वर्ष पूर्व सोनीपत आ गया था । अतः पूर्णतया ट्रस्ट के कार्य में लग जाने पर मैंने स्वयं प्रकाशित समस्त ग्रन्थराशि लागत मूल्य पर ट्रस्ट को दे दी। तदनुसार संस्कृत व्याकरण-शास्त्र के इतिहास को छपवाने का उत्तरदायित्व ट्रस्ट पर ही था। ट्रस्ट लगभग ४ वर्ष से समाप्त हुए इस ग्रन्थ को आर्थिक कारणों से प्रकाशित करने में असमर्थ रहा । प्रथम भाग का प्रकाशन ट्रस्ट की ओर से कयंचित् हुमा, परन्तु दूसरे भाग का प्रकाशन सम्भव न देखकर इसे मैंने स्वयं छपवाने का प्रयत्न किया।
द्वितीय भाग का यह संस्करण पहले की अपेक्षा परिष्कृत एवं परिवधित हैं। इसी के साथ इस ग्रन्थ का तृतीय भाग भी प्रकाशित हो रहा है । इस प्रकार अब यह ग्रन्थ तीन भागों में परिपूर्ण हो गया है।
द्वितीय भाग की छपाई के व्यय का प्रबन्ध न होने से मैंने करनाल निवासी राय साहब श्री चौधरी प्रतापसिंह जी से ५०००) पांच सहस्र रुपया एक वर्ष के लिए ऋण रूप में देने की प्रार्थना की। आपने बड़ी उदारता से मुझे पांच सहस्र रुपया इस कार्य के लिए दे दिया । आपकी इस उदारता के लिए मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूं।
श्री रामलाल कपूर ट्रस्ट प्रेस में यह ग्रन्थ छपा है। इसके लिए ट्रस्ट के अधिकारियों का भी मैं अनुगृहीत हूं। इन्हीं की उदारता से तृतीय भाग की छपाई का भी प्रबन्ध हुअा है। रा० ला० क० ट्रस्ट, बहालगढ़ (सोनीपत). श्रावण पूर्णिमा, सं० २०३०, विदुषां वशंवदः१७ अगस्त १९७३।
युधिष्ठिर मीमांसक