________________
१२४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इतना ही नहीं, पाणिनीय तथा अन्य धातुपाठ के व्याख्याकारों द्वारा उद्धृत पाठों से इसके सम्पादन में अवश्य साहाय्य लेना चाहिए। ,
वृत्तिकार आचार्य चन्द्र के धातुपाठ पर अनेक वैयाकरणों ने वृत्तियां लिखी ५ थीं, उनमें से कतिपय परिज्ञात वृत्तिकार ये हैं
१-प्राचार्य चन्द्र (सं० १००० वि०) आचार्य चन्द्र ने जैसे अपने शब्दानुशासन पर स्वोपज्ञ वृत्ति लिखी थी, उसी प्रकार उसने अपने धातुपाठ पर भी कोई स्वोपज्ञ वृत्ति
अवश्य लिखी थी । इस वृत्ति के निर्देशक कतिपय प्रमाण इस १० प्रकार हैं
१-धातुवृत्ति में सायण लिखता है'चन्द्रस्तु गुणाभावं न सहते । यदाह-अर्णोतीत्युदाहृत्य क्षिणेर्धातोर्लघोरुपान्त्यस्य गुणो नेष्यत इति । पृष्ठ ३५७ ।
चन्द्र का उक्त उद्धृत पाठ उसकी धातुवृत्ति में ही सम्भव १५ हो सकता है।
२-- क्षीरस्वामी ने क्षीरतरङ्गिणी में लिखा है'चन्द्रस्त्वत्राप्युभयपदित्वमाम्नासीत् णिविकल्पं च ।' १०॥१॥
आचार्य चन्द्र का उक्त मत उसके धातु-व्याख्यान से ही उद्धृत हो सकता है. अन्यतः नहीं।
३-क्षीरस्वामी पुनः लिखता है'चन्द्रः प्रातिपदिकाद् धात्वर्थे (१०।२९५) इत्यनेनैव साधयति ।' १०।१८१॥
यह बात चन्द्राचार्य ने धातुपाठ की वृत्ति में ही लिखी होगी। अन्यत्र इसका प्रसङ्ग नहीं हो सकता।
२५
१. द्र० व्या० शास्त्र का इतिहास भाग १, चान्द्र व्याकरण प्रसंग।
२. तुलना करो-तथैव चान्द्रेण पूर्णचन्द्रेण ऋणु गतौ तृणु अदने घृण् दीप्तौ इत्यत्र अर्णोति तर्णोति घोतीत्युदाहृत्योक्तम् - घातोलंघोरुपान्त्यस्यादेङ नेध्यत इत्यन्यः तस्याभिप्रायो मृग्य इति । पुरुषकार पृष्ठ २१ ।