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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्यात (३) ११६ विशेषः पाणिनेरिष्टः सामान्यं शर्वर्मणः । पृष्ठ ८ ।
अर्थात् स्वरितेत् और जित् धातुओं से कर्जभिप्राय क्रियाफल द्योतित होने पर प्रात्मनेपद होता है और अकर्षभिप्राय क्रियाफल गम्यमान होने पर परस्मैपद होता है, ऐसा विशेष नियम' पाणिनि को इष्ट है । सामान्य अर्थात् स्वगामी परगामी दोनों प्रकार के क्रिया ५ फलों में दोनों पद होते हैं, यह शर्ववर्मा को इष्ट है । ___ इस उद्धरण से शर्ववर्मा ने स्वीय धातुपाठ पर कोई वृत्ति ग्रन्थ लिखा था, इस की स्पष्ट प्रतीति होती है।
शर्ववर्मा के काल आदि के विषय में हम पूर्व प्रथम भाग में कातन्त्र व्याकरण के प्रकरण में लिख चुके हैं।
२-दुर्गसिंह (सं० ७०० वि०) आचार्य दुर्गसिंह ने शर्ववर्मा द्वारा संक्षिप्त कातन्त्र धातुपाठ पर एक वृत्ति लिखी थी। इसके उद्धरण व्याकरण वाङ्मय में बहुधा उद्धृत हैं । यह वृत्ति इतनी महत्त्वपूर्ण है कि इस वृत्ति के साहचर्य से कातन्त्र धातुपाठ भी दुर्ग के नाम से प्रसिद्ध हो गया। क्षीरस्वामी ने १५ मूल कातन्त्र धातुपाठ के उद्धरण भी दुर्गः अथवा दौर्गाः के नाम से उद्धत किये हैं। कतिपय शोध-कर्ताओं का यह भी विचार है कि दुर्गाचार्य ने शर्ववर्मा के धातुपाठ का परिष्कार किया था (द्र० कातन्त्र विमर्श पृष्ठ ६५-६७)। ऐसा स्वीकार करने पर भी किंचित् परिकार कर देने से शर्ववर्मा द्वारा संक्षिप्त धातुपाठ का व्याख्याता दुर्गसिंह माना ही जा सकता है । सायण ने पाणिनीय धातुपाठ का भरपूर
१. इस ग्रन्थ के पूर्व संस्करण में हमने यह विशेष नियम चुरादिगणस्थ धातुओं के लिये लिखा था। इसकी आलोचना पं० जानकीप्रसाद द्विवेद ने 'कातन्त्र व्याकरण विमर्श' नामक शोधप्रबन्ध में पृष्ठ ८४ पर की है। द्विवेदजी का लेख जितने अंश में हमें उचित प्रतीत हुमा तदनुसार हमने यहां संशोधन २५ कर दिया है । परन्तु उनका मत 'शर्ववर्मा ने धातुपाठ पर कोई वृत्ति नहीं लिखी थी' यह अंश हमें उचित प्रतीत नहीं होता । शर्ववर्मा ने सूत्रपाठ पर वृत्ति लिखी हो और धातुपाठ पर वृत्ति न लिखी हो, यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है ?
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