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________________ ११८ संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास है कि वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कातन्त्र धातुपाठ का परिष्कार किया था । इसमें मनोरमाकार रमानाथ का निम्न वचन उद्धृत किया हैदुर्गसहस्त्वमून् एक योगं कृत्वा वैक्लव्ये पठति नालादरोदनयोः । ५ कतन्त्र धातुपाठ के हमारे पास विद्यमान बृहत् र लघु दोनों पाठों में कदि ऋदि क्लदि आह्वाने रोदने च क्लिदि परिदेवने विभक्त पाठ ही उपलब्ध होता है । अतः मनोरमाकार रमानाथ के पूर्वोद्धृत उद्धरण से 'दुर्गासिंह द्वारा शववर्मीय कातन्त्र धातुपाठ का पुनः परिष्कार' की प्रामाणिकता स्पष्ट है । परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि आनन्दराय बहुवा विरचित कातन्त्र धातुवृत्तिसार, जो 'पब्लिकेशन बोर्ड असम' कलकत्ता द्वारा सन् १९७७ में दौर्गवृत्तिसार के नाम से छपा है, उस में पृष्ठ २, धातु संख्या ३२-३५ तक कदि क्लदि ऋदि आह्नाने रोदने च, क्लिदि परिदेवने दो धातुसूत्र ही छपे हैं । प्रतः जब तक रमानाथ की मनोरमा १५ वृत्ति स्वयं न देखी जाये, निर्णय करना कठिन है । वृत्तिकार १० कातन्त्र धातुपाठ के प्राचीन बृहत्पाठ पर कोई वृत्ति उपलब्ध नहीं होती है । शर्ववर्मा द्वारा संक्षिप्त कातन्त्र धातुपाठ के निम्न वृत्तिकारों का हमें परिज्ञान है - २० १ - शर्ववर्मा (सं० ४०० - ५०० वि० पूर्व) शर्ववर्मा ने कातन्त्र व्याकरण पर एक वृत्ति लिखी थी. यह हम इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग में कातन्त्र व्याकरण के प्रकरण में लिख चुके हैं । शर्ववर्मा ने स्वयं संक्षिप्त किये कातन्त्र धातुपाठ पर कोई २५ वृत्ति लिखी थी, इसका साक्षात् प्रमाण तो उपलब्ध नहीं होता, तथापि कविकल्पद्रुम की दुर्गादास विरचित धातुदीपिका में निम्न वचन उपलब्ध होता है १. कातन्त्र विमर्श, पृष्ठ १५ । द्विवेद जी ने कुछ और भी प्रमाण दिये हैं, उन्हें उनके ग्रन्थ में ही देखें ।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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