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बाइसवां अध्याय
धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्या (३)
(पाणिनि से उत्तरवर्ती) आचार्य पाणिनि से सहस्रों वर्ष पूर्व व्याकरण-शास्त्र-प्रवचन की जिस धारा का आरम्भ इन्द्र से हुआ, और पाणिनिपर्यन्त अविच्छिन्न ५ रूप से पहुंची, वह धारा पाणिनि के अनन्तर भी अजस्ररूप से बहती रही। हां, इस धारा ने उत्तरवर्ती काल में एक विशिष्ट दिशा की ओर मुख मोड़ा । वह धिशिष्ट दिशा है-केवल लौकिक संस्कृत के शब्दों का अन्वाख्यान ।' इस कारण पाणिनि से उत्तरवर्ती व्याकरण वैदिक ग्रन्थों के परिशीलन में किञ्चित् भी सहायक नहीं होते। १० कुछ आगे चलकर इस धारा ने दूसरा मोड़ लिया। वह मोड़ हैसाम्प्रदायिकता का । जैनेन्द्र, जैन शाकटायन, हैम आदि व्याकरण एकमात्र साम्प्रदायिक हैं। इन्हीं के अनुकरण पर उतर काल में हरिलीलामृत आदि कतिपय ऐसे भी व्याकरण लिखे गए, जो अथ से इति पर्यन्त साम्प्रदायिकता के रंग में रंगे हुए हैं। साम्प्रदायिकता के इस १५ युग का न्यूनाधिक प्रभाव पाणिनीय व्याकरण के व्याख्याता जयादित्यवामन, भट्टोजि दीक्षित आदि पर भी स्पष्ट दिखाई देता है । इन लोगों ने अनेक स्थानों पर प्राचीन परम्परागत उदाहरणों का परित्याग कर के स्वसम्प्रदायविशेष से सम्बद्ध उदाहरण अपनी-अपनी व्याख्यानों में दिए हैं। हां, इतना अवश्य है कि जयादित्य और वामन की काशिका २० में यह साम्प्रदायिक की प्रवृत्ति नाममात्र हैं । इस कारण इन्होंने चार स्थानों को छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र प्राचीन परम्परागत उदाहरणों की ही रक्षा की है।
१. इस में चान्द्र और सरस्वतीकण्ठाभरण अपवादरूप हैं। चान्द्र व्याकरण में स्वरवैदिक प्रकरण का समावेश था, परन्तु उत्तरकाल में अध्येतानों के २५ प्रमादवश यह प्रकरण नष्ट हो गया। द्र०-भाग १, चान्द्र व्याकरण प्रकरण ।
२. यही ग्रन्थ, भाग १, काशिका-वृत्ति का महत्त्व' प्रकरण।