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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
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मैत्रेय का धातुप्रदीप संक्षिप्ततर है। इन दोनों धातुवृत्तियों के साहाय्य से विद्वान् पुरुष भी धातुरूपी गहन वन का अवगाहन करने में असमर्थ रहते हैं, पुनः साधारण जनों का तो क्या कहना। इन वृत्तियों में
प्रत्येक घात के णिजन्त, सन्नन्त, यङन्त आदि प्रक्रियायों के रूप प्रदर्शित ५ ही नहीं किए । माधवीया धातुवत्ति में प्रायः सभी धातुओं के णिजन्त
आदि प्रक्रियाओं के रूप संक्षेप से प्रदर्शित किए हैं। इतना ही नहीं, जिन रूपों के विषय में विद्वानों में मतभेद है, उनके विषय में प्राचीन प्राचार्यों के विविध मतों को उद्धृत करके निर्णयात्मक रूप में अपना मत लिखा हैं । यद्यपि अनेक स्थानों पर अतिसूक्ष्म विचार की चर्चा होने से यह ग्रन्थ कुछ कठिन भी हो गया है, तथापि बुद्धिमान अध्यापकों के लिए यह परम सहायक है। सिद्धान्तकौमुदी के प्रचलन से पूर्व पाणिनीय वैयाकरणों में धातुराठ के पठनपाठन को क्या शंलो प्रचलित थी, इसका वास्तविक ज्ञान इसी ग्रन्थ से होता हैं । जो लोग पाणिनीय क्रम का उल्लङ्घन (जो कि कौमुदो आदि ग्रन्थों में किया गया है) न करके आर्षक्रम से ही पाणिनीय तन्त्र का अध्ययन-अध्यापन करना चाहते हैं, उनके लिए यह 'धातुवृत्ति ग्रन्थ काशिकावृत्ति के समान ही परम सहायक है।
प्रक्रियाग्रन्थों के अन्तर्गत धातुव्याख्यान विक्रम की १२ वीं शती से पाणिनीय व्याकरण के पठन-पाठन में , पाणिनीय शब्दानुशासन के सूत्र-क्रम का परित्याग करके प्रक्रियाक्रम
से व्याकरण-अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई। प्रक्रियाग्रन्थकारों ने धातूपाठ का भो उसो के भीतर अन्तर्भाव कर लिया। इसलिए उन ग्रन्थों में धातुपाठ की व्याख्या होने पर भी वे सीधे
धातुव्याख्यान के ग्रन्थ नहीं कहे जा सकते। २५ इतना ही नहीं, इन प्रक्रियाग्रन्थकारों ने जिस प्रकार शब्दानु
शासन के सूत्र-क्रम को भङ्ग किया, उसी प्रकार धातूपाठ की परम्परा से चली आ रही पठन-पाठन की प्रक्रिया का भी परित्याग कर दिया। प्राचीन पठन-पाठन-परिपाटो के अनुसार प्रत्येक धातु की दसों प्रक्रि
यात्रों के दसों लकारों के सभी रूपों का ज्ञान छात्रों को कराया जाता ३० था। परन्तु प्रक्रियाग्रन्यकारों ने केवल सामान्य कर्त प्रक्रिया के
कतिपय रूपों का ही निदर्शन धातुव्याख्यान में कराया हैं। शेष भाव,