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संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास
उद्धृत किये हैं । प्रात्रेय ने धातुपाठ पर कोई वृत्ति ग्रन्थ लिखा था, इसका साक्षात् उल्लेख सायण ने प्रथर्व-भाष्य २।२८.५ में किया है। वह लिखता है -
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प्रियम् - यद्यपि वृत्तौ इगुपधज्ञा० इत्यत्र प्रीणातेरेव ग्रहणं कृतं तथापि श्रात्रेय धातुवृत्त्यनुसारेण श्रस्मादपि को द्रष्टव्यः ।
'मुस खण्डने' पर धातुवृत्ति में सायण लिखता है -
मुसलमिति श्रस्मादेव औणादिक: कलप्रत्यय इति वदतोरात्रेय - मैत्रेययोरन्येषां " । पृष्ठ ३०८ ।
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श्रात्रेय मैत्रेयाभ्यामपि स्वादेश्छान्दतेषु पठितस्य क्षेर्धातो १० पृष्ठ ३५६ ।
यहां पाणिनीय धातुपाठ के व्याख्याता मैत्रेय के साथ आत्रेयका उल्लेख होने से विदित होता है कि आत्रेय ने पाणिनीय धातुपाठ पर ही वृत्ति लिखी थी । प्रथम उद्धरण में भी पाणिनीय सूत्र और उसकी वृत्ति का निर्देश भी हमारे इस अनुभान में साधक हैं ।
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श्रात्रेय का काल - प्रात्रेय का काल अज्ञात है । सायण ने प्रात्रेय का साक्षात् उल्लेख किया हैं । इसलिये यह सायण ( १४०० वि० ) से पूर्ववर्ती है । इतना स्पष्ट है । यह इसकी उत्तर सीमा है ।
सायण ने धातुवृत्ति पृष्ठ ३५८ पर आत्रेय का एक पाठ इस प्रकार उद्धृत किया है—
श्रत्रात्रेयः - 'कथं क्रियतीति पुरुषकार:' इत्युपादाय व्यत्ययो बहुलमिति कर्मण्यपि परस्मैपदसिद्धे इत्युक्तमित्याह ।
इस उद्धरण में स्मृत 'पुरुषकार' कृष्ण लीलाशुक मुनि विरचित 'दैवम्' ग्रन्थ की पुरुषकार वार्तिक व्याख्या नहीं है, क्योंकि उस में यह
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१. हमने 'सं० व्या० शास्त्र का इतिहास ग्रन्थ के पुराने संस्करण में आत्रेय को कातन्त्र धातुपाठ का वृत्तिकार लिखा था । उसकी आलोचना पं० जानकीप्रसाद द्विवेद ने अपने 'कातन्त्र व्याकरण विमर्श' नामक शोध प्रबन्ध के पृष्ठ ६६ पर की है । उसे युक्तियुक्त मानकर प्रात्रेय के प्रकरण को कातन्त्र धातुपाठ के प्रकरण से हटाकर हमने यहां जोड़ा है । भूल दर्शाने के लिये
ग्रन्थकार का धन्यवाद ।