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१०६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १३. कृष्ण लीलाशुक मुनि (सं० १२२५-१३०० वि०)
कृष्ण लीलाशुक मुनि ने देव-विरचित दैव ग्रन्थ पर पुरुषकारसंज्ञक वार्तिक लिखा है । ग्रन्थ के अन्त में लिखा है
_ 'कृष्णलीलाशुकनैव कीर्तितं दैववार्तिकम्।'
कृष्ण लीलाशुक मुनि के विषय में हम इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में भोजीय व्याकरण के प्रसंग में तथा क्षीरतरङ्गिणी के उपोद्धात पृष्ठ ३७, ३८, पर विस्तार से लिख चुके हैं. अतः यहां पुन: नहीं लिखते।
'दैव' पर कृष्ण लीलाशुक मुनि द्वारा लिखित 'पुरुषकार वात्तिक' का एक सुन्दर संस्करण हमने सं० २०१६ में प्रकाशित किया है।
अन्य ग्रन्थ १-सरस्वतीकण्ठाभरण-व्याख्या--इस ग्रन्थ के विषय में हम सं० व्या० शास्त्र का इतिहास के प्रथम भाग में भेजीय व्याकरण के प्रसंग में लिख चुके हैं।
२-सुप्पुरुषकार-सायण ने माधवीया धातुवृत्ति में सुब्धातु१५ व्याख्यान में पुरुषकार के नाम से एक पाठ उद्धृत किया है । वह इस प्रकार है
तदुक्त पुरुषकारे-'बह्यतीत्युदाहृत्येष्ठनि यद् दृष्टं कायं तदप्यतिदिश्यते, न चेष्ठनि यिट्, नापीष्ठवद्भावश्च । यिट्सन्नियोगशिष्टत्वात् तदभावे तु भावयतीति चिन्त्यमाप्तः इति । पृष्ठ ४२८ ॥ ___ यह पाठ मुद्रित दैवटीका पुरुषकार में उपलब्ध नहीं होता है । इससे प्रतीत होता है कि कृष्ण लीलाशुक मुनि ने कदाचित् सुब्धातुव्याख्यानरूप पुरुषकार ग्रन्य भी लिखा हो। ___ लीलाशक मनि विरचित सरस्वती-कण्ठाभरण की टीका का नाम भी पुरुषकार हैं । सम्भव है सायण ने उक्त उद्धरण सरस्वती-कण्ठाभरण की टीका से लिया हो । परन्तु इसमें एक विप्रतिपत्ति भी हैसायण के उद्धरण में 'न चेष्ठनि यिट्' लिखा है । परन्तु सरस्वतीकण्ठाभरण ६।३।१६७ में इष्ठन् परे युक् का विधान किया है। यह भी सम्भव हो सकता है कि सायण ने सरस्वती-कण्ठाभरण 'यूक'