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________________ १०४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ४–रुट लुट इति हरियोगी । पृष्ठ ५८ ॥ इन उद्धरणों से व्यक्त है कि हरियोगी पुरुषकार कृष्ण लीलाशुक मुनि से पूर्ववर्ती है । कृष्ण लीलाशुक मुनि का कोल वि० सं० १२५० के लगभग है, यह हम इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में भोजीय सरस्वती५ कण्ठाभरण के प्रकरण में तथा शीरतरङ्गिणी के उपोद्घात पृष्ठ ३७ पर लिख चुके हैं। अतः हरियोगी का काल समान्यतया सं० १२०० विक्रम के लगभग माना जा सकता है। धातुप्रत्यय-पञ्जिका-मद्रास के द्वितीय हस्तलेख का जो पाठ पूर्व उद्धत किया है, उसमें शाब्दिकाभरण के साथ धातप्रत्ययपञ्जिका नाम भी निर्दिष्ट है। इससे प्रतीत होता है कि शाब्दिकाभरण का नामान्तर 'धातुप्रत्ययपञ्जिका' भी है। अथवा यह भी संभव है कि शाब्दिकाभरण विस्तृत ग्रन्थ हो, उसमें सूत्रपाठ और खिलपाठ सभी का व्याख्यान हो, और तदन्तर्गत धातुप्रकरण की व्याख्या का अपरनाम धातुप्रत्ययपञ्जिका रहा हो। .. अन्य धातुप्रत्यय-पञ्जिका-तजौर के हस्तलेख संग्रह के सूचीपत्र भाग १० संख्या ५७१६-५८२३ तक (पृष्ठ ४३३८-४२) धातुप्रत्ययपञ्जिका के पांच हस्तलेख निर्दिष्ट हैं। इनके रचयिता का नाम धर्मकोति लिखा है । एक धर्मकीर्ति रूपावतार नामक व्याकरण ग्रन्थ का लेखक है। उसका उल्लेख हम इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग में 'प्रक्रिया-ग्रन्थकार' प्रकरण में कर चुके हैं। इस धातुप्रत्ययपञ्जिका का लेकक रूपावतारकृद् धर्मकीर्ति ही है, अथवा उससे भिन्न व्यक्ति है, यह अज्ञात है। १२. देव (सं० ११५०-१२००) देव नाम के किसी विद्वान् ने पाणिनीय धातुपाठ-विषयक 'दैव' १ संज्ञक एक श्लोकात्मक ग्रन्थ बनाया। इस ग्रन्थ में समानरूप वालो अनेक गणों में पठित धातुओं को विभिन्न गणों में पढ़ने का क्या प्रयोजन है, इस विषय पर विचार किया है। ग्रन्थकार ने स्वयं लिखा है 'इत्यनेकविकरणसरूपधातुव्याख्यानं देवनाम्ना विदुषा विरचितं ३० दैवं समाप्तम् ।'
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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