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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्यात (२) तब तो निश्चय ही दोनों एक हैं, और इसी क्षीरस्वामी का अभिनवराघव नाटक है, ऐसा मानना पड़ेगा।
९. मैत्रेयरक्षित (११४०-११६५ वि०) मैत्रेयरक्षित नाम के बौद्ध विद्वान् ने धातुपाठ पर धातुप्रदीप नाम की एक लघुवृत्ति रची। यह वृत्ति वारेन्द्र रिसर्च सोसइटी राजशाही बङ्गाल से प्रकाशित हो चुकी है।
परिचय मैत्रेयरक्षित ने किस कुल में, किस देश वा नगर में और किस काल में जन्म किया, यह अज्ञात है।
सम्भवतः बंगवासी- धातुप्रदीप में अनेक स्थानों पर धातुओं के प्रारम्भ में दन्त्योष्ठय वकार होने से न शसददवादिगुणानाम (अष्टा० १० ६।४।१२६ ) सूत्र से एत्व और अभ्यासलोप का साक्षात् प्रतिषेध प्राप्त होने पर भी चन्द्राचार्य की सम्मति से एत्व और अभ्यासलोप को उदाहृत किथा है । यथा
(क) वज वज गतौ (११२४६, २५०).......एत्वाभ्यासलोपप्रतिषेधश्चास्य चान्द्रैरुदाहृतः, ववाज ववजतुः......"। पृष्ठ २५॥ १५
(ख) ष्टन वन शब्दे (११४६०, ४६१ )...."ववान ववननतुः । अस्य एत्वाभ्यासलोपतिषेधश्चान्द्ररुदाहृतः। पृष्ठ ३७।।
साक्षात् पाणिनि के सूत्र से एत्वाभ्यासलोप का निषेध प्राप्त होने पर भी चन्द्राचार्य के मत का आश्रय लेना, इस बात प्रमाण है कि मैत्रेयरक्षित को दन्त्योष्ठय व और प्रोष्ठ्य ब में साक्षात् भेदपरिज्ञान २० नहीं था। व ब के समान उच्चारण दोष के कारण बाङ्ग विद्वान् इनके भेदग्रह में प्रायः मोहित होते हैं । इसी मोह के कारण मैत्रेयरक्षित ने भी साक्षात् पाणिनीय नियम का प्राश्रयण न करके चान्द्र मत का
आश्रयण किया। अतः प्रतीत होता है कि मैत्रेयरक्षित सम्भवतः बङ्गदेशवासी था। चन्द्राचार्य भी बंगदेशीय था, यह हम प्रथम भाग २५ में चान्द्र व्याकरण के प्रसंग में लिख चुके हैं।
काल-मैत्रेयरक्षित का ग्रन्थलेखनकाल वि० सं० ११४०-११६५ के मध्य में रहा होगा, यह हम इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में महाभाष्यप्रदोप के रचयिता कैयट के प्रकरण में विस्तार से सिख चुके हैं।