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घातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२)
स्मत क्षीरस्वामी के ३२ उद्धरणों में से ३० उद्धरण क्षीरस्वामी की अमरटीका में उपलब्ध होते हैं।' प्रवशिष्ट दो उद्धरणों में से एक उद्धरण शब्दनं शब्दः (निघण्ट टीका १।११।३२) क्षीरतरङ्गिणी ११७२७ के व्याख्यान में उपलब्ध होता है। देखिए क्षीरतरङ्गिणी के पृष्ठ १५८ की टिप्पणी में निर्दिष्ट 'शब्दः शब्दनम्' पाठ। इस प्रकार ५ अब एक ही उद्धरण ऐसा है, जो अभी अज्ञात है, वह भी सम्भव है कुछ पाठभेद से क्षीरतरङ्गिणी में ही हो। ___ यतः लोक में कोशग्रन्थों के लिए भी निघण्टु शब्द का भी व्यवहार होता है, अतः देवराज के 'निघण्ट-व्याख्या' पद से वैदिक निघण्टु व्याख्या की कल्पना करना ठीक नहीं है, जब कि क्षीरस्वामी १० के ३२ उद्धरणों में से ३० उद्धरण उसकी अमरकोश की व्याख्या में उपलब्ध हो चुके हों।
२-निपाताव्ययोपसर्गवृत्ति-इसका एक हस्तलेख अडियार (मद्रास) के पुस्तकालय में सुरक्षित है। इसका क्रमाङ्क ४८७ है। यह हस्तलेख तिलक-नाम्नी व्याख्या सहित है। हस्तलेख के अन्त में १५ लिखा है
'भट्टक्षीरस्वाम्युत्प्रेक्षितनिपाताव्ययोपसर्गीये तिलककृता वृत्तिः संपूर्णति । भद्रं पश्येम प्रचरेम भद्रम्.....।'
यह वृत्ति अप्पलसोमेश्वर शर्मा P.O. L. द्वारा सम्पादित, वेङ्कटेश्वर प्राच्यग्रन्थावली संख्या २८ में तिरुपति से १६५१ में २० प्रकाशित हो चुकी है । इस संस्करण का हस्तलेख सन् १९११ में श्रीपरवस्तु वेङ्कट रङ्गनाथस्वामी द्वारा लिखित है। अडियार के हस्तलेख और तिरुपति से मुद्रित हस्तलेख के अन्त का पाठ समान होने से
१. पं० भगवद्दत्तकृत 'वैदिक वाङमय का इतिहास' वेदों के भाष्यकार पृष्ठ २०८, २०६॥
२. इस बात को न समझकर मैकडानल ने षड्गुरुशिष्य की सर्वानुक्रमणी की व्याख्या में उदधृत 'यातयामो जीर्णे भुक्तोच्छिष्टेऽपि च इति निघण्टौ' (पृष्ठ ५६) तथा 'शङ्कावितर्कभययोरिति निघण्ट:' उद्धरणों के विषय में लिखा हैकि यह यास्कीय निघण्ट में नहीं हैं। षड गुरुशिष्य द्वारा उद्धृत दोनों वचन वैजयन्ती कोश में क्रमशः पृष्ठ २२३, २७५ पर मिलते हैं।
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