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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास संस्करण प्रकाशित किया था, वह उसके महान् परिश्रम का फल था, इस में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है। हमारे संस्करण का मूल आधार यद्यपि लिबिश का संस्करण ही था, पुनरपि हमने व्याकरण के समस्त उपलब्ध वाङमय में उद्धृत क्षीरतरङ्गिणी के पाठों का संग्रह करके उनके प्रकाश में अपने संस्करण का सम्पादन किया है। प्रतिपृष्ठ व्याकरण आदि विविध शास्त्रसंबद्ध अनेक टिप्पणियां दी हैं। हमारे संस्करण में जर्मन संस्करण की अपेक्षा २६ प्रकार का वैशिष्टय हैं। यह सब हमारे संस्करण तथा उसके उपोद्घात पृष्ठ ४३-४७ के अवलोकन से ही भले प्रकार ज्ञात हो सकता है।
नये संस्करण की आवश्यकता-क्षीरतरङ्गिणी के ३-४ हस्तलेख प्राचीन शारदा लिपि में लिखे हुए भण्डारकर प्राच्य-शोध प्रतिष्ठान, पूना के संग्रह में विद्यमान हैं। उनके साहाय्य से इसका पुनः सम्पादन होना चाहिये । हमें प्राचीन शारदा लिपि जाननेवाला व्यक्ति उपलब्ध
नहीं हुअा। अतः हम चाहते हुए भी उक्त हस्तलेखों की सहायता १५ से क्षीरतरङ्गिणी का पुनः सम्पादन नहीं कर सके ।
क्षीरस्वामी के अन्य ग्रन्थ क्षीरस्वामी ने क्षीरतरङ्गिणी के अतिरिक्त पांच ग्रन्थ और लिखे थे। वह क्षीरतरङ्गिणी के प्रारम्भ में लिखता है'न्याय्ये वर्त्मनि वर्तनाय भवतां षड् वृत्तयः कल्पिताः।'
यही बात अमरकोश की व्याख्या के आदि में भी कही है। क्षीरतरङ्गिणी के अतिरिक्त चार अन्य वृत्तियों के नाम इस प्रकार
१-अमरकोषोद्घाटनम्--यह ग्रन्थ दो तीन बार प्रकाशित हो चुका है। २५ निघण्टु-टोका-देवराजयज्वा ने अपनी निघण्टु व्याख्या के
प्रारम्भ में क्षीरस्वामी कृत निघण्टुटीका' को स्मरण किया है। यह निघण्टुटीका वैदिक यास्कीय निघण्टु की नहीं हैं । यह अमरकोश को 'उद्घाटन' टीका ही है, क्योंकि देवराज यज्वा द्वारा निघण्टु टीका में
१. क्षीरस्वाम्यनन्ताचार्यादिकृतां निघण्टव्याख्याम् । पृष्ठ ४ ॥