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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता ( २ )
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इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि क्षीरस्वामी प्राचार्य हेमचन्द्र से पूर्ववर्ती है ।
क्षीरतरङ्गिणी के उपोद्घात (पृष्ठ ३२ ) में हमने श्री पं० चन्द्रसागर सूरि के प्रमाण से क्षीरस्वामी को हैम से पूर्ववर्ती माना था । उस समय तक हमें साक्षात् ऐसा वचन उपलब्ध नहीं हुआ था, जिससे ५ क्षीरस्वामी और हेमचन्द्राचार्य का निश्चित पौर्वापर्य परिज्ञात हो सके । अब आचार्य हेमचन्द्र के द्वारा उद्धृत क्षीरस्वामी के उद्धरण से स्पष्ट हो गया है कि क्षीरस्वामी हेमचन्द्राचार्य से पूर्ववर्ती है ।
४ - श्रीरतरङ्गिणी के हस्तलेख के अन्त में निम्न पद्य उपलब्ध होता है
कश्मीरभुवमण्डलं जयसिंहनाम्नि विश्वम्भरापरिवृढे दृढदीर्घवोष्णि । शासत्यमात्यसूनुरिमां लिलेख भवत्या स्वयं द्रविणवानपि धातुपाठम् ॥ अर्थात् — कश्मीर-प्रधिपति जयसिंह के किसी श्रमात्य के पुत्र ने क्षीरतरङ्गिणी की प्रतिलिपि की थो ।
उक्त श्लोक में स्मृत जयसिंह नृपति का राज्यकाल वि० सं० १५ १९८५-११९५ तक है । इस काल के मध्य में क्षीरतरङ्गिणी की प्रतिलिपि करने से विदित होता है कि क्षीरस्वामी उक्त समय से पूर्ववर्ती है ।
५ - मैत्रेयरक्षित ने वि० सं० ११४० से १९६५ के मध्य अपना 'धातुप्रदीप' ग्रन्थ लिखा था, यह हम इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग में २० महाभाष्य- प्रदीप के रचयिता कैयट काल - निर्णय के प्रसंग में लिख चुके हैं । मैत्रेयरक्षित धातुप्रदीप में बहुत स्थानों पर केचित्, एके, श्रपरे पदों से क्षीरस्वामी के मतों का निर्देश करता है । यथा
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(क) ऋञ्जते, ऋञ्जाञ्चक्रे । केचित्त प्रत्युदाहरन्ति । पृष्ठ २० ।
क्षीरस्वामी ने क्षीरतरङ्गिणी १।११० में ऋञ्जते, धानुञ्जे उदाहरण दिए हैं । क्षीरतरङ्गिणी ११११० ( पृष्ठ ३६ ) की हमारी टिप्पणी भी द्रष्टव्य है |
(ख) तुहिर् दुहिर् इत्येके । पृष्ठ ५२ ।
इसके लिए क्षीरतरङ्गिणी ११४८७ द्रष्टव्य है
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इति
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