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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
इसका पाठान्तर इस प्रकार है'ज्योतींषि ग्रहादीनधिकृत्य कृतो प्रन्थो ज्यौतिषः. ज्यौतिषं वेद ज्यौतिषिकः ।' द्र०-पृष्ठ १८३, टि० २।
इनमें पाठान्तर में निर्दिष्ट पाठ क्षीरस्वामी की अमरकोशव्याख्या (२।८।१४) से अक्षरशः मिलता है।
(ख) क्षीरस्वामिना मार्ष मारिष इत्यपि, यथा पर्षत् परिषदिति टीकायां विवृतम् । ७।४३०, पृष्ठ २३८ ॥
इसका पाठान्तर इस प्रकार है'मर्षणात् सहनात् मारिषः । मार्षोऽपि । यथा परिषत् [पर्षत् ]
___द्र०-पृष्ठ ३८, टि० २। इनमें भी पाठान्तर में निर्दिष्ट पाठ क्षीरस्वामी को अमरटीका में मारिष पद के व्याख्यान में उपलब्ध होता है।
गणरत्न-महोदधि के मुद्रित संस्करणों को भ्रष्टता-उपर्युक्त उद्धरणों की तुलना से स्पष्ट है कि गणरत्न-महोदधि का योरोपीय " और उसके आधार पर छपा भारतीय, दोनों संस्करण अत्यन्त भ्रष्ट हैं। गणरत्न-महोदधि जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के शुद्ध संस्करण को महती आवश्यकता है। इस समय इसका कोई भी संस्करण सुप्राप्य नहीं हैं । कुछ वर्ष हुए योरोपीय संस्करण पुनः छपा है।
३–आचार्य हेमचन्द्र (वि० सं० ११४५-१२२९) ने हैम अभि२० धान की स्वोपज्ञ चिन्तामणि व्याख्या में क्षीरस्वामी के निम्न पाठ
उद्धृत किये हैं
(क) क्षीरस्वामी नु-'काष्ठमुपलक्षणम्, काष्ठाऽश्मादिमयी जलधारिणी द्रोणो इति व्याचख्यौ।' ३३५४१, पृष्ठ ३५० ॥
क्षीरस्वामी का यह पाठ उसकी अमरकोश १।६।११ की व्याख्या २५ (पृष्ठ ६३) में उपलब्ध होता है।
(ख) “हितजलापभ्रंशो हिज्जलः' इति क्षीरस्वामी । ४।२११, पृष्ठ ४६१ ॥
क्षीरस्वामी का यह पाठ उसकी अमरकोश २।४।६१ की व्याख्या (पृष्ठ ६३) में उपलब्ध होता है ।