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संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
शश्रन्थे...... इदित्त्वादनुनासिकलोपाभावः । श्रेये इति तदाहरन् वृत्तिकृद् भ्रान्तः । क्षीरत० १।२६१ ॥ अर्थात् - शश्रन्थे में धातु के इदित होने से नकार का लोप नहीं होता । श्रेथे ऐसा उदाहरण देता हुआ वृत्तिकृद् भ्रान्त हुआ है ।
वृत्तिकृद् = धातुवृत्तिकार - ' वृत्तिकृद्' तथा 'वृत्तिकार' शब्द प्रायः काशिकावृत्ति के रचयिताओं के लिए प्रयुक्त होता है, परन्तु यहां वृत्तिकृद् पद किसी धातुवृत्ति के रचयिता का बोधक है । सायणाचार्य ने क्षीरस्वामी के उपर्युक्त पाठ को उद्धृत करके लिखा है -:
प्रत्र तरङ्गिणी - इदित्त्वादनुनासिकलोपाभावात् श्रेथे ग्रेथे इत्यु१० दाहरन् वृत्तिकारो भ्रान्त इति । अत्र वृत्तिकारो धातुवृत्तिकृदुच्चते । धातुवृत्ति पृष्ठ ४६ । २ - देवराज यज्वा निघण्टु १ । १ । ३ की व्याख्या में लिखता है - प्रजू व्यक्तिप्रक्षणकान्तिगतिषु म्रक्षणं सेचनमिति तद्वृत्तिः । अर्थात् - स्रक्षण का अर्थ सेचन है, ऐसा वृत्ति का मत है । इन उद्धरणों में स्मृत धातुवृत्तिकार अथवा धातुवृत्ति भोमसेन अथवा उसकी धातुवृत्ति ग्रन्थ न हो, तो क्षीरस्वामी से पूर्ववर्ती किसी अन्य वैयाकरण ने पाणिनीय धातुपाठ पर लिखी थी, ऐसा निःसंशय कहा जा सकता है ।
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६ - नन्दिस्वामी
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क्षीरस्वामी ने क्षीरतरङ्गिणी में बहुत्र नन्दी के धातुपाठ विषयक पाठ उद्धृत किए हैं । क्षीरतरङ्गिणी धातुसूत्र १।२२६ ( पृष्ठ ५६ ) में नन्दीस्वामिनो पाठ मिलता हैं। इसका पाठान्तर 'नन्दीस्वामी' भी है । दैव- व्याख्यान पुरुषकार ( पृष्ठ ४६ ) में सुधाकर का जो पाठ उद्धृत है, उसमें 'नन्दिस्वामी' का भी निर्देश है ।
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यह नन्दिस्वामी यदि जैनेन्द्रव्याकरणप्रवक्ता देवनन्दी से भिन्न व्यक्ति हो, जैसा कि 'स्वामी' विशेषण से ज्ञात होता है तब निश्चय ही यह पाणिनीय धातुपाठ का व्याख्याता हो सकता है; अन्यथा सन्दिग्ध हैं ।
७- राजश्री - धातुवृत्तिकार (१२१५ वि० पृ० )
सर्वानन्द ने अमरटीका सर्वस्व भाग १ पृष्ठ १५३ पर राजश्री - घावृत्ति का एक पाठ उद्धृत किया है