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[१०] पाश्चात्यमतानुयायी विद्वानों से हमारा नम्र निवेदन है कि वे पाश्चात्य विद्वानों के प्रसारित काल्पनिक मतों के विषय में अपनी अप्रतिहत बुद्धि से पुनः विचार करें। हमें निश्चय है कि यदि भारतीय विद्वान् अपनी स्वतन्त्र मेघा से काम लें तो वे न केवल पाश्चात्य मतों के खोखलेपन से ही विज्ञ होंगे अपितु भारतीय वाङमय संस्कृति और इतिहास को पाश्चात्य विद्वानों के कुचक्रों से बचाकर भारत का गौरव बढ़ायेंगे। भगवान हमें सदबुद्धि दे कि हम विदेशियों द्वारा चिरकाल से प्रसारित कुचक्रों के भेदन में समर्थ हो सकें।
कृतज्ञता-प्रकाशन गत तीन वर्षों की रुग्णता का लम्बी अवधि और शल्य-चिकित्सा (आप्रेशन) के समय जिन महानुभावों ने मेरी अनेकविध सहायता की, उनके प्रति कृतज्ञता-प्रकाशन और धन्यवाद करना आवश्यक है। इन महानुभावों में
१-सब से प्रथम उल्लेखनीय 'महर्षि दयानन्द स्मारक ट्रस्ट टङ्कारा' के मन्त्री श्री पं० अानन्दप्रियजी, और ट्रस्ट के सभी माननीय सदस्य महानुभाव हैं जिन्होंने रुग्णता के काल में टङ्कारा का, जहां मैं ट्रस्ट के अन्तर्गत अनुसन्धान कार्य कर रहा था, जलवायु अनुकूल न होने पर अजमेर (जहां का जलवायु मेरे लिए सबसे अधिक अनुकूल है) में रहकर ट्रस्ट का कार्य करने की अनुमति प्रदान की और अत्यधिक रुग्णता के काल में ४-५ मासों की, जिनमें मैं अस्वस्थता तथा शल्यचिकित्सा के कारण कुछ भी कार्य न कर सका था, बराबर दक्षिणा देते रहे । यह महान् औदार्य कार्यकर्ता को क्रीतदास समझने वाले साम्प्रतिक वातावरण में अपने रूप में एक अनठा उदाहरण प्रस्तुत करता है। विद्वानों के प्रति प्रहरहर्बलिमित्ते हरन्तोऽश्वायेव तिष्ठते घासमग्ने (अथर्व १९।५।६) की वैदिक प्राज्ञा को कार्यरूप में उपस्थित करता है । इस अप्रतिम सहायता के लिए म० द० स्मारक ट्रस्ट के माननीय मन्त्रीजी, समस्त अधिकारी और सदस्य महानुभावों पठन-पाठन में उत्तरोत्तर न्यूनता पा रही है । स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि विद्या के प्रमुख क्षेत्र काशी में भी इस समय (सन् १९८४ में) सम्पूर्ण महाभाष्य के पढ़ानेवाले नहीं हैं) यह अतिशयोक्ति नहीं है, वास्तविक तथ्य है ।।