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________________ [६] उन्होंने पाश्चात्य मतों का अन्ध-अनुकरण करने में ही अपना श्रेय समझा। स्वतन्त्रता के पश्चात्-भारत की परतन्त्रता के काल में पूर्वनिदिष्ट व्यवसाय कथंचित् क्षम्य हो सकता था परन्तु भारत के स्वतन्त्र होने पर भी भारत की शिक्षा व्यवस्था ऐसे ही लोगों के हाथ में रही, और है, जो स्वयं भारतीय वाङ्मय, संस्कृति और इतिहास के परिज्ञान से न केवल रहित ही हैं अपितु पाश्चात्य शिक्षाप्रणाली से नष्ट-प्रतिभ होकर पाश्चात्य लेखकों के वचनों को ब्रह्मवाक्य समझकर आंख मीचकर सत्य स्वीकार करते हैं । उसी का यह फल है कि अपनी संस्कृति वाङ् मय और इतिहास के प्रति अश्रद्ध होने के कारण हम में से भारतीयता बड़ी तीव्रता से नष्ट हो रही है। भारतीयता के नष्ट होने पर हम में स्वदेश और स्वजाति के प्रति प्रेम कैसे रहेगा ? यह एक गम्भीर विचारणीय प्रश्न है। हमें तो इस परिस्थिति का अन्त पुनः पराधीनता के रूप में ही दिखाई देता है। वह पराधीनता बहिं किसी भी रूप की क्यों न हो, पराधीनता पराधीनता ही होती हैं। रूढ़िवादी कौन -पाश्चात्य विद्वान् और उनके अनुयायी भारतीय वाङमय संस्कृति और इतिहास से प्रेम रखने वाले भारतीयों को रूढ़िवादी, प्रतिगामी अथवा अप्रगतिशील कहकर उनका सदा उपहास करते रहे और करते हैं। इसलिए हमें सखेद कटु सत्य कहने पर विवश होना पड़ता है कि पाश्चात्य मतों के अन्य अनयायी भारतीय ही न केवल रूढ़िवादी प्रतिगामी अथवा अप्रगतिशील हैं, अपितु भारतीय सत्य वाङ्मय संस्कृति और इतिहास को नष्ट करके भारत को पुनः दासता में प्राबद्ध करनेवाले हैं। इसी पाश्चात्य दासता का फल है कि हम स्वतन्त्र होने के पश्चात १५ वर्ष का दीर्घकाल बीत जाने पर भी अंग्रेजी भाषा की दासता से मुक्त न हो सके।" ।। १. यह अंग्रेजी की दासता अभी सं० २०३० =१९७३ ई०, तक बनी हुई है और अंग्रेजी भक्तों ने ऐसा माया जाल बिछाया है कि उससे भारत का छुटकारा निकट भविष्य में तो होता दीखता ही नहीं। [इसके अनन्तर अंग्रेजी भाषा की दासता बढ़ी है घटी नहीं । इसके विपरीत संस्कृत भाषा के
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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