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संस्कृत-व्याकरण शास्त्र का इतिहास
१ - श्राख्यात निघण्टु - इस ग्रन्थ के तीन उद्धरण कृष्ण लीलाशुक मुनि ने अपने दैव व्याख्यान पुरुषकार में दिये हैं
'स्नाति स्नायत्याप्लवते' इति चाख्यात निघण्टुः । पृष्ठ २० । तथा चाण्यात निघण्टु : - ' यत्ने प्रेषे निराकारे यातयेदप्युपस्कृतौ ५ इति । पृष्ठ ७० ।
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'कृन्तत्य चोटयदचुण्ठयदच्छुरच्च' इत्याख्यात निघण्टुश्च । पृष्ठ ९४ ।
कृष्ण लीलाशुकमुनि का काल विक्रम की तेरहवीं शती का उत्तरार्ध है । यह हम इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में भोजीय सरस्वतीकण्ठाभरण व्याकरण के प्रसंग में सप्रमाण लिख चुके हैं । अतः 'क्रिया१० निघण्टु' १३ शती से प्राचीन है, यह सुव्यक्त है ।
इसके ग्रन्थकर्ता का नाम आदि कुछ ज्ञात नहीं है ।
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२ - श्राख्यातचन्द्रिका- - इस ग्रन्थ का कर्ता भट्टमल्ल है । भट्टमल्ल को मल्लिनाथ ने अपनी नैषधव्याख्या ( ४१८४ ) में उद्धृत किया है । अतः भट्टमल्ल मल्लिनाथ से प्राचीन है, इतना ही कहा जा सकता है । मल्लिनाथ ने नैषध १।११ को व्याख्या में साहित्यदर्पण १०४६ को उद्धृत किया है । साहित्यदर्पण का काल वि० सं० १३६३ के आसपास है ।'
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'आख्यातचन्द्रिका' के सम्पादक वेङ्कट रङ्गनाथ स्वामी ने लिखा है कि अमरकोष की सर्वानन्द विरचित टोकासर्वस्व व्याख्या में आख्यातचन्द्रिका उद्धृत हैं । यदि सम्पादक का यह लेख युक्त हो ( हमें उक्तवचन उपलब्ध नहीं हुआ) तो निश्चय ही भट्टमल वि० सं० १२२५ से प्राचीन होगा ।
क्षीरस्वामी ने विट आक्रोशे ( क्षीरत० १।३१६ ) धातुसूत्र के व्याख्यान में एक मल्ल नामक विद्वान् को उद्धृत किया है
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'श्रत एव विट शब्दे पिट श्राक्रोशे इति मल्लः पर्यट्टकान्तरे विभङ्ग्याह ।'
यह मल्ल प्रख्यात चन्द्रिका के रचयिता भट्टमल्ल से भिन्न व्यक्ति है अथवा अभिन्न, इनमें से कोई प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं हुआ ।
१. द्र० – कन्हैयालाल पोद्दार लिखित 'संस्कृत साहित्य का इतिहास ३० भाग १, पृष्ठ २७३ ।